शोभना सम्मान - २०१३ समारोह

रविवार, 29 जून 2014

कहानी: जश्न

 बके अपने- अपने शौक होते हैं मेरे भी कुछ शौक है. कॉलेज की पढ़ाई और घर के काम की व्यस्त दिनचर्या के बीच सुबह- सुबह डंबल उठाना, योगाभ्यास करना और अपने भाई की देखा-देखी कर शीशे के सामने बॉक्सिंग के पंच मारना. जबकि मेरी सहेलियाँ मुझसे बिल्कुल ही अलग हैं वो अपना अधिकतर समय मेकअप करके अपना चेहरा घिसने में व्यस्त रहना ज्यादा पसंद करती हैं. ऐसी ही मेरी एक सहेली है रीतू. उसका जब भी मन करता है मुँह उठाये मेरे पास वक़्त-बेवक़्त अपनी फरमाइश लेकर आ धमकती और कहती, “अगर तू मुझे अपनी सहेली मानती है तो तुझे यह करना पड़ेगा नहीं तो तू मेरी सहेली नहीं. हमारी दोस्ती समझ कि खत्म.मैं अपनी आदतानुसार किसी का दिल न दुखाने वाली लड़की उसकी बात अक्सर मान ही लेती.
     एक दिन शाम की चाय पीने के बाद अपने पढ़ाई में मस्त थी कि रीतू आ टपकी और अपनी फ़रमाइश की पोटली मेरे सामने खोल दी. उसने कहा कि इसी वक्त मुझे उसके साथ बाजार चलना पड़ेगा. उसके चचेरे भाई की शादी है और उसे कपड़ों की खरीददारी करनी है. खास बात यह थी कि रीतू सामान मेरी पसंद का खरीदना चाहती थी हालांकि मुझे पता था कि वह मेरी पसंद का कितना सामान लेगी. मैंने अपनी माँ से रीतू की फरमाइश पूरी करने की इजाजत माँगी, तो माँ ने हाँ कर दी लेकिन साथ ही साथ यह हिदायत भी दे डाली कि शाम के सात बजे से पहले  वापस आ जाना, क्योंकि शहर का माहौल खराब है.
     मैं और रीतू बाजार की ओर चल पड़े. रास्ते भर रीतू अपनी बातें सुनाती हुई गई. जिसमें अधिकतर उसकी खुद की ही तारीफ़ के कसीदे पढ़ना शामिल था. जैसे कि उसकी सुंदरता के बारे में, उसकी बहादुरी के किस्से आदि. असलियत में व्यक्तित्व तो उसका औसत से कुछ कम ही था जिसे वह सारा दिन मेकअप पोतकर आकर्षक बनाने का निष्फल प्रयास करती थी. अब उसकी बहादुरी के बारे में मैं पूरी तरह आश्वस्त नहीं हूँ क्योंकि मुझे उसकी बातों में कभी सच्चाई नहीं लगती क्योंकि मेरा मानना है कि जब इंसान सच बोलता है तो उसकी आँखों में एक अलग ही तरह की चमक होती है, लेकिन जब ही वह कोई अपना ऐसा किस्सा सुनाती तो उसकी आँखों में उस चमक का सदैव अभाव रहता. उसकी हमेशा आदत है कि वह अपने आप को हमेशा श्रेष्ठ बताने का प्रयास करती है और अपने आगे किसी की खूबियों को कोई महत्व नहीं देती. मुझे याद है एक दिन मेरे कमरे में लगे आइने के सामने अपने बालों को ठीक करते हुए उसने मुझसे एक प्रश्न पूछा कि तू इस बारे में क्या सोचती है? मैंने पूछा किस बारे में? वह बोली यही कि हम दोनों में ज्यादा सुंदर कौन है? फिर खुद ही जबाव भी दे दिया कि देख अगर तू इस गलतफहमी में है कि तू ज्यादा सुंदर है तो इसे भूल जा क्योंकि तू मेरे सामने कुछ भी नहीं है. मैं उसका जबाव सुनकर मुस्कुरा दी. हमारे पड़ोस में रहने वाली आठ वर्ष की नीरू हमारे सामने बैठी हुई थी वह तपाक से बोली कि रीतू दीदी कभी अपने चेहरे से यह किलो भर का मेकअप हटाए बिना अपना चेहरा दिखाइए तो पता चले भी कि आप कितनी सुंदर है. यह सुनते ही वह बुरी तरह चिढ़ गई थी. रीतू से मेरी पहचान तब से है जब मैं पाँच वर्ष की थी. वह मेरी सहपाठिन रही है. हम दोनों की शिक्षा साथ- साथ ही हुई. बचपन में वह पढाई- लिखाई में काफी अच्छी थी इस कारण हम दोनों में दोस्ती हुई लेकिन अब उसकी पढ़ाई में कुछ खास दिलचस्पी नहीं है. बस हर वर्ष उत्तीर्ण होने लायक तक अंक ले आती है और कहती है वह अपने जीवन से संतुष्ट है. कम से कम फेल तो नहीं हुई. उसकी मम्मी हमेशा मेरे सामने उसकी आदतों का रोना रोती रहती. उनकी हमेशा शिकायत रहती कि मेरे तीन बेटे है और सिर्फ रीतू एक लड़की. तीनों बेटे अपनी पढ़ाई में हमेशा बेहतर करते है लेकिन रीतू कभी भी अपनी पढ़ाई को गंभीरता से नहीं लेती. खास बात यह है कि वह अपने बेटों पर इतना ध्यान नहीं देती लेकिन अपनी बेटी को किसी सुविधा का अभाव नहीं होने देती और घर के काम को सीखने में भी उसे कोई ज्यादा दिलचस्पी नहीं है बस अपने में खोई रहती है. वह अक्सर कहती हैं कि मैं उसकी इतने वर्षों से सहेली हूँ वह मेरी बात जरूर मानेगी. मैं उसे समझाया करूँ. उसके भाइयों ने भी मुझसे कई बार कहा कि वह उनके कहे को अक्सर नजरंदाज करती है  मैं उसकी आदतों में बदलाव करने की कोशिश करूँ लेकिन मैंने इस बारें में उससे कई बार बात करने की कोशिश की लेकिन सब बेकार उससे बात करना ऐसा था मानो भैंस के आगे बीन बजाने जैसा. उसका जबाव मुझे यह मिलता कि मैं ज्यादा दार्शनिक बनने का नाटक न करूँ. कई बार मैंने उससे अपनी दोस्ती भी खत्म करनी चाही तो उसकी मम्मी मुझसे कहती बेटी एक तू ही तो है जिसकी बात वह मानती है अगर तूने उसका साथ छोड़ा तो जो वह थोड़ा हमारे नियंत्रण में है वह भी निकल जाएगी. लेकिन उसकी मम्मी को असलियत कौन समझाए कि वह कितना मेरी बात मानती है. वह तो अपने आगे किसी को कुछ नहीं समझती. आंटी का दुःख देखकर मैं अपना इरादा बदल लेती.
    सनकीपन में भी उसका कोई सानी नहीं. एक बार रीतू की मम्मी का मुझे सुबह- सुबह फोन आया और मुझे अपने घर आने के लिए कहा. मैंने कारण जानना चाहा तो उन्होंने पहले मुझे अपने घर पहुँचने के लिए कहा.मैंने उनको उस दिन शाम को उनके घर पहुँचने का वादा किया. मैं शाम को उनके घर पहुँची तो आंटी मुझे रीतू के कमरे में ले गई. उसकी हालत ज्यादा खराब थी, मैंने उसकी ऐसी स्थिति का कारण जानना चाहा तो आंटी ने बताया कि एक महीने से यह व्रत किए हुए है अन्न ग्रहण नहीं कर रही. मैंने रीतू से पूछा ऐसा क्यों कर रही है तो वह बोली भगवान को खुश करना है. मैंने कहा भगवान भी अपने भक्तों को कष्ट में देखना पसंद नहीं करता वह बोली मेरी मर्जी मैं इसी तरह उनकी पूजा करती हूँ. उसकी मम्मी उसकी हालत देख कर रोने लगीं. उस दौरान वह अपनी जिद की वजह से मरते- मरते बची.
    इन सब घटनाओं में खोये हुये बाज़ार कब आ गया कि पता ही नहीं चला. वहाँ पहुँचते ही उसने खरीदारी शुरू कर दी. रीतू खरीदारी करने में इतनी मशगूल हो गई कि शाम के सात बजने को आए लेकिन उसकी खरीदारी पूरी न हुई. मैंने उससे कहा कि हमें इतने समय तक घर पहुँचना था अब काफी समय हो चुका है तो हमें यहाँ से निकलना चाहिए. उसने कहा बस कुछ देर में ही निकलते हैं थोड़ा सामान लेना बाकी है. उसका थोड़ा समान लेते- लेते ही रात के आठ बज गए. मेरे दिल की धड़कने बढ़ने लगीं. मैंने उसे कहा चलना है तो चले वरना मैं उसे छोड़कर अकेले घर जा रही हूँ जब उसने वापस चलने के लिए कोई उत्साह न दिखाया तो गुस्से में मैं ही वहाँ से चल दी. आख़िरकार वह भी मेरे पीछे- पीछे चल ही पड़ी. हमने काफी देर इंतज़ार किया लेकिन कोई सवारी का साधन न दिखाई दिया. आखिर एक खाली रिक्शा सामने से आता हुआ दिखा. मैंने उस रिक्शेवाले को रोका और उससे निश्चित स्थान और किराया तय कर हम दोनों उसके रिक्शे में बैठ कर वापस घर की ओर चल दिये. मैं गुस्से में रिक्शे पर चुपचाप बैठी हुई थी और रीतू इसलिए चुपचाप बैठी थी क्योंकि वह मुझसे कुछ बातकर मेरे गुस्से को और अधिक बढ़ाना नहीं चाहती थी. एकदम से रिक्शेवाले में न जाने कहाँ से ऊर्जा का संचार हुआ कि वह रिक्शा तेजी से चलाने लगा या देशी भाषा में कहें कि रिक्शे को उड़ाने लगा. फिर अचानक ही उसे जाने क्या सूझा कि उसने अपने रिक्शे को एक सुनसान गली की तरफ मोड़ दिया. मैंने उससे कहा कि वह गलत रास्ते पर रिक्शा क्यों ले जा रहा है? जब उसने कोई जवाब नहीं दिया तो मैंने उसे डाँटते हुये रिक्शा उसी वक़्त रोकने को कहा. अब रिक्शेवाले ने विलेन का रूप धारण कर धमकाते हुये कहा, “लड़की अगर जिन्दा रहना चाहती है तो चुपचाप बैठी रह.किसी अनहोनी की आशंका से मेरा दिल काँप उठा और मैं चलते हुये रिक्शे से कूंद गई तथा अपने दोनों हाथों से रिक्शे को पीछे से पकड़कर रोक लिया. उस आदमी ने बहुत कोशिश की रिक्शा खीचनें की लेकिन मेरे हाथों में कसरत कर-करके इतनी ताकत आ चुकी थी कि वह रिक्शे को एक इंच भी आगे न बढ़ा सका. अब मैंने उस रिक्शेवाले को रिक्शे से उतारा और उसके दो-चार हाथ धर दिये. तभी हमारे पास एक फौजी अंकल दौड़ते हुये आए और सारे माजरे के बारे में पूछने लगे. जब मैंने उन्हें सारा घटनाक्रम बताया तो उन्होंने ने भी उस रिक्शेवाले पर अपने हाथों की खुजली मिटा ली और उसे पकड़ कर पुलिस थाने की ओर रवाना हो गए. इतना सब कुछ हो चुका था लेकिन मेरी तथाकथित बहादुर सहेली रिक्शे पर सुन्न हालत में बैठी रहकर अपनी तथाकथित बहादुरी का प्रदर्शन करने में मशगूल थी. मैंने उसे पकड़कर हिलाया तब जाकर वह होश में आई. रीतू के साथ चलते हुये मैं घर के दरवाजे पर पहुँची तो रीतू ने मुझे वहीं से विदा किया और अपने घर चली गई. मैं अपने घर का दरवाजा खटखटा रही थी इस उम्मीद के साथ कि जल्दी से माँ दरवाजा खोलें और मैं फ्रिज में रखा हुआ ढोकला निकालकर खाते हुये रीतू को अपनी मित्रता सूची में से हमेशा के लिए हटाने का जश्न मनाऊँ. 

5 टिप्पणियाँ:

रचना त्यागी 'आभा' ने कहा…

शिक्षाप्रद संस्मरण है। यह सच है कि थोथा चना, बाजे घना.. पर वक्त आने पर उनकी असलियत खुल ही जाती है।

Sumit Pratap Singh ने कहा…

रचना जी यह संस्मरणात्मक कहानी है. जिस प्रकार अच्छी कविता में "फिर से कहो" वाली भावना कार्य करती है उसी प्रकार कहानी में "आगे क्या हुआ" वाली जिज्ञासा मौजूद हो तो वह एक कहानी की श्रेणी में आ सकती है. इस हिसाब से जश्न को कहानी की श्रेणी शामिल किया जा सकता है.
सादर

Unknown ने कहा…

बहोत अच्छी व शिक्षाप्रद रचना बहन

Unknown ने कहा…

मैंने महादेवी वर्मा जी की कहानियों का संकलन पढ़ा था. उनकी कहानियों में भी इसी प्रकार का चरित्र चित्रण होता है. जीवन की असली घटनाओं पर आधारित. बढ़िया कहानी संगीता जी लिखती रहिए.

संगीता तोमर Sangeeta Tomar ने कहा…

आप सभी का आभार.....

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