शोभना सम्मान - २०१३ समारोह

शनिवार, 28 नवंबर 2015

कविता: एक सच

जो सीधे-सच्चे
होते हैं इंसान
उनको नहीं जरुरत

होती चिकनी-चुपड़ी
बातें करने की
न ही होना पड़ता
विवश उन्हें 
किसी के चरण चूमने को 
उनका तो परिश्रमी 
तन-मन
निश्छल व्यवहार
और स्पष्टवादिता ही
उनके आगे बढ़ने का
मार्ग प्रशस्त करते हैं।
लेखिका- संगीता सिंह तोमर

गुरुवार, 19 मार्च 2015

नारी बनाम स्वतंत्रता


    स रोज अचानक एक पत्रिका में छपे एक महिला के विचारों की ओर ध्यान चला गया। उस महिला द्वारा पुरुष वर्ग की आलोचना करते हुए बहुत ही कटु विचार प्रस्तुत किये हुए थे। उसमें कुछ शब्द तो ऐसे थे कि उन्हें यहाँ उल्लिखित करना भी अनुचित लगता है। अक्सर कुछ महिलाएँ नारीवाद के नाम पर पुरुष समाज की ऐसी-तैसी करने को तत्पर रहती हैं। उनके मतानुसार पुरुषवर्ग स्त्री जाति को शोषण की चक्की में पीसना चाहता है और उसे पिछड़ा बने रहना ही देखना चाहता है। इन तथाकथित आधुनिक स्त्रियों द्वारा पुरुष को एक अत्याचारी जीव के रूप में ही प्रस्तुत किया जाता है। जबकि यदि हम इतिहास के पन्नों को खोलकर देंखें तो पता चलता है कि प्राचीन समय, जबकि उस समय पैतृक समाज था, से ही भारत में अनेक विदूषी नारियों का आस्तित्व दिखाई देता है। ऋग्वेद में लोपामुद्रा, घोषा, सिकता, अपाला एवं विश्वास जैसी विदुषी नारियों का ज़िक्र मिलता है। इन विदूषियों को 'ऋषि' की उपाधि से विभूषित किया गया था। प्राचीन समय में भी स्त्रियाँ महत्वाकांक्षी थीं और हर कला में पारंगत होना चाहती थीं। उन्होंने अपना मानसिक व बौद्धिक स्तर विकसित करने के लिए हर क्षेत्र में ज्ञान की खोज करने का यत्न किया, न कि आज की कुछ तथाकथित आधुनिक कहलाने वाली स्त्रियों की तरह अपने बदन की नुमाइश पर बल दिया। यदि एक पुरुष की सफलता के पीछे एक स्त्री का हाथ होता है, तो हमें यह भी सत्य स्वीकार करना चाहिए कि एक स्त्री की सफलता के पीछे भी एक पुरुष का हाथ हो सकता है। अब अगर स्त्री इस सच्चाई को अपने अहम के कारण स्वीकार करना ही न चाहे तो ये अलग बात है। क्या स्त्री का पुरुष के बिना कोई अस्तित्व संभव है? एक बार के लिए यदि स्त्री पिता, भाई, पति और पुत्र के बिना अपनी कल्पना करे तो उसमें एक अधूरापन ही रहेगा। समाज में परिवर्तन तभी आ सकता है जब पुरुष और स्त्री दोनों आपस में एक-दूसरे का सम्मान करना सीखें न कि हमेशा एक-दूसरे पर ऊंगली ही उठाते रहें। अगर कोई स्त्री पाश्चात्य संस्कृति का अनुसरण कर स्वतंत्रता का नाम देकर भारतीय मूल्यों को तिलांजलि देते हुए समाज से सम्मान की उम्मीद करे तो करती रहे। हमारी भारतीय संस्कृति ऐसी है जहाँ पुरुष में भगवान श्री राम और नारी में देवी सीता के गुणों को महत्व दिया जाता है। अब यह स्त्री पर निर्भर है कि वह अपने को सम्मानीय स्तर पर लाना चाहती है या फिर मात्र तमाशा भर बनना चाहती है।
    एक पुरानी घटना याद आ रही है। एक दिन अपनी माँ के साथ उनकी सहेली के यहाँ जाना हुआ। अचानक बातों ही बातों में  समाज में  महिलाओं के साथ हो रहे अपराधों के विषय में बहस होने लगी। माँ बोलीं, “बहन जी देखिये आजकल की लड़कियों का पहनावा भी कितना खराब हो रहा है। लड़कियों को शालीन वस्त्र पहन कर रहना चाहिए।” इस पर माँ की सहेली बोलीं, “बहन जी मेरे अनुसार तो लड़की की आँखों में शर्म होनी चाहिए। पहनावे से कुछ फर्क नहीं पड़ता। बिगड़नेवाली तो सलवार-कमीज पहनने वाली भी बिगड़ जाती है।” उनकी एक बेटी घर में हाफ पैंट में घूम रही थी। उसका हाफ पैंट कुछ ज्यादा ही छोटा था। दूसरी बेटी ने  पूरा पैंट तो पहन रखा था, लेकिन ऊपरी बदन पर ऊंची कुर्ती पहनी हुई थी। कपड़े तो पूरे बदन पर थे लेकिन कपड़े पारदर्शी थे जो शरीर को ढकने की बजाय उसे दिखा अधिक रहे थे। उस दौरान उनके घर पर किसी काम से दो जानकार आए और वे दोनों माँ की सहेली से बातचीत करने की बजाय उनकी बेटियों के कपड़ों पर ही ध्यान केन्द्रित किये रहे।
   “लड़कियों की आँखों में शर्म होनी चाहिए, चाहे पूरा बेशक बदन नंगा बना रहे” भावना का उस देश में विकास हो रहा है जहाँ पर अनेक नारियाँ अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हुए अग्नि में जलकर स्वाहा हो गईं, लेकिन अपने मान पर आंच नहीं आने दी। आज की तथाकथित आधुनिक नारी अश्लीलता का दामन थाम आगे बढ़ना चाहती है। शालीन वस्त्र पहनने के बारे में सुनना भी इसे रूढ़िवादिता लगती है और इसे वह अपनी स्वतंत्रता का हनन मानती है। विवाह को वह कैद मानकर ‘लिव इन रिलेशनशिप’ का दामन थामने की पक्षधर है। लड़कों के साथ स्वछंद रूप से कमर में हाथ डलवाकर घूमना और सिगरेट के कश खींचना या फिर शराब के पैग लगाना ही इसे आधुनिक बनाता है, लेकिन विवाह  के बाद सास-ससुर, पति और बच्चों के लिए रसोई में खाना बनाना इसको शोषित वर्ग के दर्जे में लाकर खड़ा कर देता है। पाश्चात्य संस्कृति की अच्छी बातों को सीखने के बजाय उसकी गंदगी को सहज ही प्रसन्नता से स्वीकार कर शायद ये तथाकथित आधुनिक नारियां आधुनिकता की कीर्ति पताका भारतीय पटल पर फहराना चाहती हैं।
    कई लोग महिलाओं की आजादी के पक्ष में बात करते हैं। वो चाहते हैं कि महिलाओं को मन-मुताबिक वस्त्र पहनने की स्वतंत्रता हो, उनके आने- जाने पर परिवार की ओर से समय की कोई पाबंदी न हो। अब ये और बात है कि परिवार द्वारा लगाईं गई यह कोई पाबंदी नहीं बल्कि उनकी सुरक्षा के लिए परिवार की ओर से चिंता होती है। वैसे भी इस प्रकार की आजादी मिलने से क्या महिलाओं की दशा में कोई उन्नति होगी? शायद उनकी स्थिति और दयनीय हो जायेगी। अभी भी देखा जा सकता है कि कुछ महिलाओं को घर की तरफ से पूरी छूट मिली है उनमें से अधिकतर पबों और होटलों में अपनी आजादी का लुत्फ़ उठाती हुई मिल जाती हैं। पाश्चात्य जगत में भी महिला को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त है। तब भी वहाँ समाज की व्यवस्था चिंताजनक है। पारिवारिक संस्था वहाँ सबसे ज्यादा कमज़ोर है, जिसका परिणाम परिवार टूटना और  सम्बंध-विच्छेद के रूप में दिखाई देता है। यदि समाज में वास्तव में महिलाओं की स्थिति को बेहतर और सम्मानीय बनाना है तो इन बेमतलब के तथ्यों को दरकिनार कर हमें मानसिक रूप से उन्हें आधुनिक बनाना पड़ेगा न कि आधुनिक वस्त्रों से। कन्याओं को प्रारंभिक अवस्था से ही शारीरिक मजबूती पर बल दिया जाना चाहिए। जिस प्रकार उनकी शिक्षा को महत्व दिया जाये उसी प्रकार उन्हें  आत्मरक्षा के लिए बॉक्सिंग, ताइक्वान्डो, जूडो, कराटे इत्यादि आत्मरक्षा के गुर सिखाना भी आवश्यक है इससे उनमें आत्मविश्वास और आत्मसम्मान का स्तर और अधिक बढ़ेगा। तब नारी वास्तव में अपने ऊपर होनेवाले वास्तविक अत्याचारों का मुकाबला करने में सक्षम होगी और यह नारी सशक्तिकरण की एक सार्थक पहल होगी।

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