(मेरी यह कविता उन सभी पुलिसवाले भाइयों को समर्पित है जो आए दिन अफसरों के जुल्म का शिकार होते रहते हैं।)
थप्पड़ खा, घूँसे खा
रे सिपाही मत चिल्ला
जूते खा, डंडे खा
रे सिपाही मत चिल्ला
गाली खाके रोता जा
रे सिपाही मत चिल्ला...
जो चिल्लाया तो
तेरी खैर नहीं
रहेगा कहीं भी
तेरा ठौर नहीं
चुपचाप जुल्म को
तू सहता जा
रे सिपाही मत चिल्ला...
तू अफसर का कुत्ता बन
कुत्ता बनके हिला तू दुम
खुद का मान-सम्मान भुलाके
चमचागिरी को तू चुन
फिर देख आएगा
तुझे बड़ा मजा
रे सिपाही मत चिल्ला...
गर न माना तू बात मेरी
दिख जाएगी तुझे औकात
सस्पेंशन, डी और टर्मिनेट की
मिल जाएगी तुझे सौगात
जाएगा यहाँ से
फिर तू रोता
रे सिपाही मत चिल्ला...
मानवाधिकार की बात न कर
अफसरशाही से कुछ तो डर
पल भर में कतरे जाएँगे
जो निकाले तूने पर
चल अब ऐसा कर
तू भाड़ में जा
रे सिपाही मत चिल्ला...
लेखिका : संगीता सिंह तोमर
चित्र गूगल से साभार