शोभना सम्मान - २०१३ समारोह

शुक्रवार, 2 अगस्त 2013

सिनेमा जगत में देशभक्ति से परिपूर्ण फिल्मों की भूमिका

स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी ने सच ही कहा है
तुजसांठी मरण ते जनन, तुजवीण जनन ते मरण!
अर्थात हे मातृभूमि! तेरे लिए मरना ही जीना है और तुझे भूल कर जीना ही मरना है!
देशभक्ति एक ऐसी भावना है जिसके बिना मनुष्य एक पशु के समान है. इसी देशप्रेम की भावना के बल पर अनेक क्रांतिकारी फाँसी के फंदे पर हँसते- हँसते झूल गए. यह देशप्रेम ही है जो सीमा पर सैनिक अपनी व अपने परिवार की चिंता छोड़कर अपनी मातृभूमि की रक्षा की खातिर रात-दिन देश की सीमा पर पड़ा रहता है और अपने कर्तव्य का पालन करता है. देश के प्रति ईमानदारीपूर्वक अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करना भी देशभक्ति ही है. अनेक रचनाकारों ने देशभक्ति से ओत-प्रोत रचनाओं का निर्माण किया है, जिन्हें पढ़कर देशप्रेमियों के भीतर देशप्रेम की भावना का संचार होता है. इसी देश प्रेम की भावना को हृदय में बसाए हुए फिल्मकारों द्वारा देश भक्ति से परिपूर्ण  अनेक हिन्दी फिल्मों का निर्माण किया गया.
     
इस कड़ी में सन् 1952 में “आनन्दमठ” हिन्दी फीचर फिल्म प्रदर्शित हुई. यह फिल्म बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय के प्रसिद्ध बंगाली उपन्यास “आनंद मठ” पर आधारित तथा हेमेन गुप्ता द्वारा निर्देशित एक ऐतिहासिक देशभक्ति से परिपूर्ण फिल्म है. इस फिल्म की कहानी पूर्वी भारत में हुए, मुख्यरूप से बंगाल में, सन्यासी विद्रोह पर आधारित है. इस फिल्म में पृथ्वीराज कपूर, भारत भूषण, गीता बाली, प्रदीप कुमार और अजीत ने अभिनय किया है. इस फिल्म में एक गीत है “वंदे मातरम”. इस गीत ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान देश भक्ति की भावना जाग्रत करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की तथा जब 1947 ई. में हमारा देश आजाद हुआ, तब यह भारत का राष्ट्रीय गीत घोषित कर दिया गया. हालाँकि भारतीय राष्ट्रीय गीत को भारतीय राष्ट्रीय गान से ज्यादा प्रभावपूर्ण माना जाता है.
      
सन् 1965 में शहीद फिल्म आई जिसका निर्देशन किया एस. राम शर्मा ने. यह फिल्म  भगत सिंह के जीवन पर आधारित है. भगत सिंह की भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका थी. उनका व्यक्तित्व आज भी भारतीय युवाओं के लिए एक प्रेरणास्रोत है. फिल्म में मुख्य कलाकार हैं मनोज कुमार, जिन्होनें भगत सिंह का किरदार निभाया है. अन्य कलाकार हैं कामिनी कौशल, प्राण, निरुपमा रॉय और प्रेम चोपड़ा इत्यादि. इस फिल्म की कहानी 20 वीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में ‘लोहड़ी’ त्यौहार से आरंभ होती है. गाँव के   रईस आदमी के घर लोहड़ी का आयोजन हुआ है, यहाँ किशन सिंह अपनी पत्नी व बच्चे भगत सिंह के साथ आए हुए हैं. इसी दौरान अंग्रेजों के जुल्मों से परेशान एक किसान मदद के लिए आता है. किशन सिंह का भाई अजीत सिंह मदद के लिए आगे बढ़ता है और अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध ‘विद्रोह’ का आरंभ कर देता है. किशन सिंह अपने भाई को मुल्क छोड़ने के लिए कहते हैं. अजीत सिंह अपने परिवार व मित्रों को छोड़कर बाहर चले जाते हैं. बालक भगत सिंह के बाल मन में अनेक प्रश्न उठने लगते हैं, कि चाचा को देश क्यों छोड़ना पड़ा? देश पर अंग्रेजों का शासन क्यों है? इस घटना को गुज़रे हुए कई साल हो जाते हैं और फिर से  लोहड़ी का त्यौहार आता है. गाँव के एक जालिम और रसूखदार इंसान के यहाँ लोहड़ी का आयोजन किया जाता है, उस ज़ालिम इंसान के जुल्म के खिलाफ गुहार लगाने के लिये एक पीड़ित किसान गाँव वालों के बीच पहुँचता है. उस ज़ालिम व रसूखदार इंसान के अन्याय के विरुद्ध भगत सिंह आवाज उठाता है. इस प्रकार एक क्रांतिकारी का जन्म हो चुका होता है. स्वाधीनता आंदोलन के प्रत्येक हिन्दुस्तानी को जागरूक करने में ‘हिन्दुस्तान सामाजिक संगठन’ ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया था. भगत सिंह इस संगठन के एक सक्रिय सदस्य थे. यहाँ पर सुखदेव, राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद, दुर्गा भाभी जैसे क्रांतिकारी हैं. भगत सिंह इस समूह के भीतर ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा लगाते हुए प्रवेश कर जाते हैं. फिल्म में दिखाया जाता है कि लाला लाजपत राय साईमन कमीशन के विरोध में शांतिपूर्वक जुलूस लेकर निकले हैं, भारी समर्थन के साथ यह लाहौर की सड़कों पर बढ़ रहा है. अंग्रेजी शासन इसे आगे नहीं बढ़ने देना चाहते व वे इसे रोकते हैं. लाला जी इस बात का विरोध करते हैं. पुलिस लाठीचार्जकर देती है. जिसके परिणामस्वरूप लाला जी शहीद हो जाते हैं. लाला जी की मौत का बदला लेने के लिए भगत सिंह व अन्य क्रांतिकारी एक होकर योजना बनाते हैं. क्रांतिकारी लाहौर के मुख्य पुलिस हाकिम ‘स्काट’ की हत्या की योजना बना पाते हैं. परन्तु मामूली सफलता के साथ केवल डिप्टी सांडर्स’ मारा जाता है. इस घटना के बाद पुलिस भगत सिंह व उनके साथियों को खोजने लगती है जबकि भगत सिंह भेष बदलकर अंग्रेजों की आँखों में धूल झोंककर अपने काम में सक्रिय रहते हैं.
इसी समय राजधानी दिल्ली में ‘डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट’ पास करने के लिए ब्रिटिश हुकूमत अपनी जिद पर अड़ी हुई है. केंद्रीय विधान सभा में भी इस पर विमर्श हो रहा है. इस बिल को पास न होने देने के लिए भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त असेम्बली में बम फेंक देते हैं. इस बम कांड में किसी को कोई आंच नहीं आती. दरअसल बम का फेंकने का उद्देश्य केवल सदन की कार्यवाही को भंग करना था. क्रांतिकारी बम फोड़ने के बाद ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारे लगाते हैं व इस एक्ट के विरोध में छपवाए गए पर्चे सदन में फेंकते हैं. भगत सिंह व उनके साथियों पर मुकदमा चलता है. अंग्रेज भगत सिंह और सुखदेव पर हुकूमत का मुखबिर बनने के लिए दबाब डालते है. वे दोनों इस इस कार्य को करने से मना कर देते है. क्रांतिकारियों के बारे में सच्चाई जानने के लिए भगत सिंह और सुखदेव को बहुत यातनाएं दी जाती हैं, लेकिन वे अपना मुँह नहीं खोलते. फिल्म में रामप्रसाद बिस्मिल के द्वारा लिखे गीतों को स्वरबद्ध किया गया है. ‘सरफरोशी की तमन्ना’ गाने को मुहम्मद रफी व अन्य गायकों ने साथ में  बहुत सुंदर तरीके से गाया है.

सन् 1967 में मनोज कुमार द्वारा निर्देशित उपकार फिल्म प्रदर्शित हुई. यह एक राष्ट्रवादी फिल्म है. इस फिल्म के अंतर्गत प्राच्य व पाश्चात्य मूल्यों की भिन्नता को सुंदर तरीके से प्रस्तुत किया गया है. फिल्म की कहानी में राधा नाम की महिला है जिसका किरदार निभाया है कामिनी कौशल ने. उसके दो पुत्र हैं भारत व पूरण. भारत के पात्र को निभाया है मनोज कुमार ने व पूरण की भूमिका निभाई है प्रेम चोपड़ा ने. राधा एक ग्रामीण महिला है, जो अपने परिवार को खुश देखना चाहती है. उसका सपना है कि उसके बेटे भी पढ़- लिखकर बड़े आदमी बने. लेकिन उसका इतना सामर्थ्य नहीं है कि वह उनकी पढ़ाई का इतना खर्चा उठा सके. आखिर भारत अपनी इच्छाओं को तिलांजलि दे देता है और पूरण पढ़ने के लिए विदेश चला जाता है. पूरण जब अपनी पढ़ाई पूरी करके वापिस लौटता है, तो वह आराम की जिंदगी का आदी हो चुका होता है और इसके लिए वह किसी भी हद तक जा सकता है. इनके परिवार में दरार डालने का काम करता है इनके पिता का हत्यारा चरणदास. चरणदास पूरण को संपति का बँटवारा करने के लिए भड़काता है. पूरण जो स्वार्थी स्वभाव का है संपति के बँटवारे के लिए जिद पकड़ लेता है. भारत स्वेच्छा से सारी संपत्ति  को पूरण के पक्ष में छोड़कर भारत- पाकिस्तान के युद्ध में लड़ने चला जाता है. जबकि पूरण दवाओं की कालाबाजारी व तस्करी करने लग जाता है और कालाबाजारी कर ग्रामीणों को बेवकूफ बनाता है. चरणदास भारत को मारने का षड्यंत्र रचता है, लेकिन विकलांग मलंग उसको बचा लेता है. घायल मलंग को बचाने में डॉ. कविता मदद करती है. दूसरी ओर पूरण भी गिरफ्तार हो जाता है. उसको अपने द्वारा किए गलत कार्य का एहसास होता है और वह तस्करों का खात्मा करने में सरकार की मदद करता है.
 यह फिल्म देशभक्ति के भाव को सशक्त तरीके से प्रस्तुत करती है. फिल्म का संगीत कर्णप्रिय है. यदि कुल मिलाकर देखा जाए तो यह फिल्म एक सराहनीय प्रस्तुति थी.

सन् 1970 में पूरब और पश्चिम फिल्म का पदार्पण हुआ. जिसे निर्देशित किया मनोज कुमार ने. इस फिल्म में अभिनय किया मनोज कुमार, सायरा बानू, अशोक कुमार, प्राण और प्रेम चोपड़ा ने. फिल्म की कहानी में 1942 ई. में ब्रिटिश भारत में हरनाम नामक एक गद्दार ईनाम के लालच में एक स्वतंत्रता सेनानी को धोखा देता है, स्वतंत्रता सेनानी मारा जाता है और अपने पीछे छोड़ जाता है बेसहारा पत्नी गंगा व बच्चे. 1947 में भारत की आजादी के बाद स्वतंत्रता सेनानी का पुत्र बड़ा हो जाता है और उच्च शिक्षा के लिए लन्दन के लिए चला जाता है. जब वह ब्रिटेन जाता है जहाँ वह अपने पिता के कॉलेज के दोस्त शर्मा, उनकी पाश्चात्य पत्नी, बेटी प्रीति और हिप्पी बेटे से मिलता है. प्रीति पाश्चात्य संस्कृति में डूबी हुई  लड़की है, जो मिनी स्कर्ट पहनती है. धूम्रपान व शराब का सेवन करती है. उसे भारतीय मूल्यों के बारें में कोई जानकारी नहीं होती जब तक कि वह भारत से नहीं मिलती.
भारत यह देखकर आश्चर्यचकित हो जाता है, कि विदेश में कई भारतीय अपने भारतीय होने पर शर्मिंदा होते हैं और उन्होंने अपने नाम भी बदलकर अंग्रेजों की भांति रख लिये हैं. प्रीति और भारत एक दूसरे को पसंद करने लगते है. प्रीति भारत के आदर्शवाद से प्रभावित होती है उससे शादी करना चाहती है लेकिन भारत देश में रहना नहीं चाहती.
भारत चाहता है कि वह भारत देश आए और यहाँ आकर देखे कि वह किस चीज को ठुकरा रही है. हमारी भारतीय संस्कृति ऐसी हैं, जो संस्कारों से पूर्ण है और परायों को भी अपनापन देने में भी नहीं हिचकती. अंत में प्रीति भारतीयता से प्रभावित होती है और धूम्रपान करना, शराब पीना व मिनी स्कर्ट पहनना छोड़कर भारतीय संस्कृति को अपना लेती है. फिल्म के गीत ‘जब जीरो दिया मेरे भारत ने’ में अपने देश भारत की सारी खूबियों का बड़ी खूबसूरती से बखान किया गया है. सभी गाने बेहतरीन है जो भारतीय संस्कृति की सर्वोच्चता को प्रस्तुत करते है. यदि यह कहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगी कि यदि किसी को भारतीय संस्कृति को भली-भांति समझना है तो वह इस फिल्म को देखकर समझ सकता है.

सन् 1981 में क्रांति फिल्म आई जिसका निर्देशन किया मनोज कुमार ने. इस फिल्म में अभिनय किया दिलीप कुमार, शशि कपूर, शत्रुहन सिन्हा, हेमा मालिनी, परवीन बाबी, सारिका, प्रेम चोपड़ा आदि. इस फिल्म की कहानी को लिखा जावेद अख्तर ने. यह फिल्म
1825 से 1875 ई. के बीच के स्वतंत्रता संग्राम के ऊपर आधारित है. इस कहानी के अंतर्गत दो सेनानी सांगा और भारत के संघर्ष की स्थिति को बड़े ही प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया गया है. कहानी की शुरुआत रामगढ़ राज्य से होती है. यहाँ के राजा लक्ष्मण सिंह का ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ सिपाही सांगा है. राजा अंग्रेजों को अपने बंदरगाह को उपयोग करने की अनुमति दे देता हैं, परन्तु अंग्रेज राजा के साथ धोखा करते है और चुपचाप चोरी से सोने और आभूषण का निर्यात करते हैं व उसके बदले में गोला बारूद लाते हैं. सांगा इस पर रोक लगाता है और इस बारे में राजा को बताने जाता है, लेकिन राजा की हत्या हो चुकी होती है. सांगा पर हत्या का आरोप लग जाता है और उसे राजद्रोही घोषित कर दिया जाता है. सांगा भाग जाता है और अपनी एक अलग फ़ौज बनाता है, जिसे क्रांति का नाम देता है.
सत्ता हथियाने के पश्चात अंग्रेजों का जनता पर अत्याचार आरंभ हो जाता है. सांगा का परिवार भी उससे बिछड़ जाता है. सांगा का एक बेटा शक्ति राजमहल पहुँच जाता है और दूसरा सांगा के साथ लड़ाई में साथ देता है. बाद में शक्ति को भी अपनी सच्चाई का पता चलता है और वह भी अंग्रेजों के खिलाफ इस लड़ाई में उनके साथ हो लेता है. आखिरकार  अंग्रेजों की हार होती है. क्रांति फिल्म हमारे भारत देश की गौरवपूर्ण गाथा की कहानी है.
यह फिल्म भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का ऐसा रोमांचक प्रस्तुतिकरण करती है, कि दर्शक आश्चर्यचकित रह जाते हैं. मनोज कुमार एक अच्छे निर्देशक के साथ ही एक अच्छे अभिनेता भी हैं. सभी कलाकारों का अभिनय बेहतरीन है. इस फिल्म के सभी गाने कर्णप्रिय हैं. ‘चना जोर गरम’ , ‘क्रांति’ और ‘अब के बरस’ गाने श्रोताओं में आज भी देशभक्ति की भावना का संचार कर तन-मन में जोश भर देते है. 1980 के दशक के दौरान यह सबसे महँगी फिल्म थी तथा इस फिल्म ने सर्वाधिक आमदनी भी की. यह लगातार 67 सप्ताह तक सिनेमाघरों में चली व इसने गोल्डन जुबली भी मनाई.

बॉर्डर फिल्म सन् 1997 में आई. इसको इसे निर्देशित किया जे. पी. दत्ता ने. इस फिल्म के कलाकार हैं सन्नी देओल, जैकी श्रॉफ, सुनील शेट्टी, अक्षय खन्ना, तब्बू, कुलभूषण खरबंदा इत्यादि. फिल्म के नाम से ही अनुमान लगाया जा सकता है, कि फिल्म जंग पर आधारित है. इस फिल्म की कहानी 1971 ई. में हुए भारत पाकिस्तान के युद्ध से प्रेरित है. राजस्थान के लोनगेवाला पोस्ट पर 120 भारतीय जवान पूरी रात पाकिस्तान टैंक रेजिमेंट से  सामना करते हैं. फिल्म 1971 ई. की जंग के ऐलान से पहले के घटनाक्रम के दृश्य से आरंभ होती है, जहाँ मेजर कुलदीप सिंह को 120 जवानों के साथ लोनगेवाला पोस्ट पर भेजा जाता है. वही दूसरी तरफ मेजर  बाजवा को जैसलमेर में हवाई बेस बनाना का हुक्म मिलता है. फिल्म आगे बढ़ती है. जिसमें जवानों के परिवारों की कहानी दिखाई गई है. धर्मवीर है जल्द ही उसकी शादी होने वाली है और उसकी एक नेत्रहीन माँ है. भैरव सिंह की नई शादी हुई है. रतन सिंह के माँ-बाप उसकी राह देख रहे हैं. मथुरा दास की पत्नी बीमार है इस कारण वह छुट्टी चाहता है. कुलदीप सिंह की पत्नी उसके तबादले के लिए जोर डालती है. फिल्म भिन्न-भिन्न जगहों से आए हुए जवानों के बीच जो रिश्ते बनते है उन्हें दिखाती  है. फिल्म में युद्ध पर केंद्रित परिदृश्य को बेहतरीन तरीके से दर्शाया गया है. अच्छी पटकथा, बढ़िया संगीत फिल्म में प्रस्तुत किया गया है. ‘संदेशे आते है’ गीत में  बड़े ही सुंदर तरीके से फौजियों के मन की भावना को दर्शाया गया है वहीं ‘मेरे दुश्मन मेरे भाई’ गाना मन को भावुक कर देता है. सन्नी देओल ने अपने सशक्त अभिनय के माध्यम से इस फिल्म में ऊर्जा भर दी है. बाकी सभी कलाकारों का अभिनय भी बेहतरीन है.

सन् 2006 में रंग दे बसन्ती फिल्म प्रदर्शित हुई. इस फिल्म को निर्देशित किया राकेश ओम प्रकाश मेहरा ने. फिल्म के मुख्य कलाकार आमिर खान, सिद्धार्थ नारायण, सोहा अली खान, कुणाल कपूर, माधवन, शरमन जोशी, अतुल कुलकर्णी और ब्रिटिश अभिनेत्री एलिस पैटन हैं. फिल्म की कहानी एक ब्रिटिश वृत्तचित्र निर्माता की है जो अपने दादा की डायरी प्रविष्टियों के आधार पर भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों पर फिल्म बनाने के लिए भारत आती है. वह भारत में क्रांतिकारियों के बारे में एक वृत्तचित्र के निर्माण की मन में इच्छा  लेकर आती है. उसका उद्देश्य भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद व उनके साथियों के ब्रिटिश तानाशाही के खिलाफ हुए संघर्ष के विषय में एक डॉक्युमेंट्री बनाना है. उसके पास धन की मात्रा कम होने के कारण वह यह चाहती है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ छात्र उसकी इस फिल्म में अभिनय करें. यहाँ वह मिलती है डीजे से जो दिल्ली विश्वविद्यालय से अपनी पढ़ाई पांच साल पूर्व पूरी कर चुका है और वह सोचता है कि बाहर की दुनिया में उसके लिये कुछ नहीं रखा है. डीजे के दोस्त है करण, असलम और सुखी. करण राजनाथ सिंघानिया नाम के एक उद्योगपति का बेटा है जिसकी अपने पिता से बिल्कुल भी नहीं पटती. असलम एक मध्यम वर्गीय मुस्लिम परिवार से है. जामा मस्जिद के निकट जो गलियां है वहाँ उसका घर है. सुखी इन सब में सबसे छोटा व अपने सभी मित्रों का प्रिय है. इन सभी दोस्तों से अलग है लक्ष्मण पांडेय जो हिंदूवादी सोच का है तथा जिसे राजनीति पर बहुत विश्वास है और उसकी यह सोच है कि राजनीति से ही देश और समाज में सुधार लाया जा सकता है. लक्ष्मण की डीजे व उसके मित्रों से नहीं बनती है, जिस कारण उनमें अक्सर झगड़ा हो जाता है. डीजे और उसके साथियों की एक और मित्र है सोनिया जो कि इस समूह में इकलौती लड़की है. सोनिया की अजय, जो कि एक फाइटर पाइलट है व भारतीय वायु सेना में मिग लड़ाकू विमान उड़ाता है, से शादी होने वाली है. ये सभी युवा अपनी जिंदगी को मौज- मस्ती से बिता रहे हैं. इनके लिए देशभक्ति मात्र इतिहास की पुस्तकों में वर्णित कहानियों के समान है. अपनी फिल्म के द्वारा सू दुनिया को भारतीय क्रांतिकारियों के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपने बलिदान द्वारा दिए गए योगदान को प्रदर्शित करना चाहती है. कहानी में मोड़ तब आता है जब सोनिया के मंगेतर अजय का विमान गिर जाता है और उस हादसे में उसकी मौत हो जाती है. सरकार उस हादसे के लिये अजय को ही जिम्मेदार ठहराती है. सोनिया और उसके मित्र इस बात को नहीं मानते. उन्हें पूरा विश्वास है कि अजय की कोई गलती नहीं होगी बल्कि उसने कई और लोगों की जान बचाने के उद्देश्य से विमान को शहर में नहीं गिरने दिया और अपनी तरफ से सच्चाई का पता लगाने का प्रयास करते हैं. फिल्म के अंत में परिवर्तन आता है जब सच्चाई को सामने लाने के लिये ये लोग भगत सिंह व राजगुरु जैसे क्रांतिकारियों के रास्ते की ओर बढ़ जाते हैं. इस फिल्म का मुख्य भाव जागृति है. यह फिल्म अपनी मान्यताओं के विषय में नए तरीके से फिर से सोचने व उठ खड़े होने के विषय में है और यह संकेत देती है कि क्रांति की जरूरत शायद आज भी उतनी ही है, जितनी कि पहले थी. फिल्म का उपशीर्षक है अ जनरेशन अवेकन्स. इस फिल्म के प्रदर्शन होने के बाद से भारतीय युवाओं ने कई मोर्चों पर सार्थक प्रदर्शन किए. रंग दे बसंती की तरह इंडिया गेट पर मोमबती जलाकर जनता ने प्रियदर्शनी मट्टू और जेसिका लाल के केसों में अदालत के खिलाफ मोर्चा निकाला और हमारे आजाद भारत के इतिहास में शायद पहली बार इस प्रकार के शांतिप्रिय जुलूस निकाल कर उच्च न्यायालय व सरकार को इन मुकदमो को दुबारा खोलने के लिये मजबूर भी कर दिया. अभी बीते दिनों दिल्ली में हुए दामिनी रेप कांड के पश्चात विजय चौक पर एकत्र युवाओं की भीड़ को देखकर ऐसा प्रतीत हुआ, कि जैसे देश में क्रांति का शुभारंभ होनेवाला है. इस फिल्म व इसके संगीत को भी काफी सराहा गया.

   चेतन आनंद की हकीक़त, ख्वाजा अहमद अब्बास द्वारा लिखित, निर्मित व निर्देशित सात हिन्दुस्तानी, मेहुल कुमार के निर्देशन व राजकुमार एवं नाना पाटेकर के अभिनय से सजी-धजी तिरंगा, जॉन मैथ्यू के निर्देशन व नसीरुद्दीन शाह, आमिर खान तथा सोनाली बेंद्रे अभिनीत सरफ़रोश, राजकुमार संतोषी के निर्देशन और अनिल कपूर, माधुरी दीक्षित, डैनी व ओम पुरी के अभिनय की शक्ति से भरी हुई पुकार, सनी देओल, अमीषा पटेल व अमरीश पुरी के सधे हुए अभिनय एवं अनिल शर्मा के सशक्त निर्देशन में बनी ग़दर और क्रिकेट खेल के माध्यम से देशभक्ति की नई परिभाषा लिखती आशुतोष गोवारिकर द्वारा निर्देशित व आमिर खान और ग्रेसी सिंह द्वारा अभिनीत लगान इत्यादि फिल्मों के माध्यम समय-समय पर हिन्दी सिनेमा ने सिनेप्रेमियों के हृदय में देशभक्ति का अंकुर रोपा. अंततः हम कह सकते हैं जिस प्रकार शहीदों ने कुर्बानी देकर अपने देश की सेवा की एवं देश की सीमा पर व भीतर सेना व पुलिस के जवान अपने देश की तन और मन से सेवा करते हैं, उसी प्रकार कुछ फिल्मकारों ने भी समय-समय पर देश प्रेम की भावना को अपनाकर ऐसे सिनेमा का निर्माण किया, जिससे देशवासियों में मृत्यु की ओर अग्रसर देश के लिये मर-मिटने की भावना को पुनर्जन्म मिला. आजकल के धनलोलुप फिल्मकारों को देखते हुए, जो धन कमाने के लिये सिनेमा के माध्यम से अश्लीलता व फूहड़ता जनता को परोस रहे हैं, देशभक्ति पूर्ण सिनेमा निर्मित करनेवाले फ़िल्मकार साधुवाद के पात्र हैं. युवा गीतकार सुमित प्रताप सिंह के शब्दों में कहें तो, “उनका जीना क्या जीना/ जो खुद ही जीते - मरते हैं/ जो मिटते देश की खातिर/ वो मरके भी न मरते हैं”. अपने सिनेमा के माध्यम से देश की खातिर जीने वाले इन फिल्मकारों को हम देशवासियों की ओर से हार्दिक अभिनन्दन.

रविवार, 5 मई 2013

सिनेमा जगत की दृष्टि में मज़दूर वर्ग

भारतीय समाज के विकास में मज़दूर की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. बात चाहें कृषि की हो या फिर अन्य कार्य की मज़दूर के परिश्रम के बिना हर कार्य असंभव प्रतीत होता है. अथक परिश्रम के बावजूद भी मज़दूर निरंतर शोषण की चक्की में पिसता रहा. भारतीय समाज निरंतर विकास की ओर अग्रसर है, किंतु अभी भी मज़दूर वर्ग की स्थिति लगभग शोचनीय ही है. प्रेमचंद जैसे कई साहित्यकारों ने भी मज़दूरों की दयनीय स्थिति व शोषण का अपनी कलम से बखूबी मार्मिक चित्रण किया, तो भला हिन्दी सिनेमा इससे कैसे अछूता रहता. भारतीय फिल्मों में भी मज़दूरों की दयनीय स्थिति को दिखाया गया, ज़मींदारों द्वारा कैसे उनका शोषण किया जाता है व गरीब कृषकों की  ज़मीनों को चालाकी से कैसे ज़मींदार अपने अधीन कर लेते है. गरीब कृषक मज़दूरों के संघर्ष व आशा- निराशा के दौर को फिल्मों में बखूबी प्रदर्शित किया गया.
इस कड़ी में सन्  1937 में ‘किसान कन्या’ नामक एक हिन्दी फीचर फिल्म प्रदर्शित हुई, जो कि  मोती बी. गिडवानी द्वारा निर्देशित है. यह भारत की पहली स्वदेश निर्मित रंगीन फिल्म है. इस फिल्म में अभिनय किया है पद्मादेवी, जिल्लो, गुलाम मोहम्मद, निसार, गनी  व सैयद अहमद इत्यादि ने. यह फिल्म सआदत हसन मंटो के उपन्यास पर आधारित है, जो कि गरीब किसानों की दुर्दशा पर केंद्रित है. राम गरीब किसान है, जिसका किरदार निभाया है निसार ने,  जो अपने ज़मींदार से बुरी तरह शोषित किया जाता है. अचानक उस ज़मींदार की हत्या हो जाती है और राम जनता की नजर में संदिग्ध हो जाता है.
सन् 1953 में बंगाली फिल्म निर्देशक बिमल रॉय द्वारा निर्देशित ‘दो बीघा ज़मीन’ फिल्म आई. इस फिल्म में मुख्य किरदार शम्भु की भूमिका को निभाया बलराज साहनी व उनकी पत्नी पारो का किरदार अदा किया निरूपा रॉय ने. दो बीघा ज़मीन कहानी में किसानों की दुर्दशा को बखूबी प्रदर्शित किया गया है. इस फिल्म को हिन्दी की महत्वपूर्ण फिल्मों में गिना जाता है. यह फिल्म इटली के नव यथार्थवादी सिनेमा से प्रेरित थी. दो बीघा ज़मीन की कहानी में एक गरीब किसान शम्भु की कहानी को दिखाया गया है. फिल्म की कहानी के अंतर्गत गाँव में भयानक अकाल पड़ने के पश्चात बारिश होती है. जिस कारण सभी प्रसन्न होते है. गाँव का ज़मींदार शहर के ठेकेदार से गाँव में ज़मीन बेचने के लिए सौदेबाजी कर लेता है. वह शम्भु से भी उसकी दो बीघा ज़मीन बेचने के लिए कहता है. शम्भु ज़मींदार से अनेक बार पैसा ऋण के रूप में ले चुका था, लेकिन वह उस पैसे को वापिस नहीं दे सका. ज़मींदार उसे ऋण के बदले में अपनी ज़मीन देने के लिए कहता है, परंतु वह अपनी ज़मीन देने से मना कर देता है, क्योंकि वही ज़मीन उसकी आय का साधन थी. ज़मींदार शम्भु से उधार लिया हुआ रुपया चुकाने के लिए कहता है. शम्भु अपने घर से बड़ी कठिनाई से धन की व्यवस्था करता है. जब वह ज़मींदार के पास ऋण की रकम लेकर पहुँचता है, तो वह आश्चर्यचकित रह जाता है, क्योंकि ऋण की राशि उसके द्वारा ले जाए धन से अधिक थी. वह लेखाकार से हुई भूल से निपटने के लिए अदालत की सहायता लेता है, लेकिन शम्भु मुकदमा हार जाता है. अदालत निर्णय देती है कि शम्भु निश्चित की गई अवधि के अंतर्गत यदि अपनी ऋण की राशि नही चुका पाता है, तो उसकी ज़मीन की नीलामी कर दी जाएगी. शंभु पैसा वापिस करने के उद्देश्य से कलकत्ता जाता है और वहाँ रिक्शा चालक का कार्य करने लग जाता है तथा उसका बेटा मोची बन जाता है. एक रोज ऋण चुकाने का दिन करीब होने के कारण शम्भु तेजी से रिक्शा खींचता है, ताकि ज्यादा पैसा कमा सके, किंतु दुर्भाग्यवश दुर्घटना का शिकार हो जाता है. अपने पिता की यह स्थिति देखकर शम्भु का बेटा चोरी करना आरंभ कर देता है. जब शम्भु को इस विषय में पता चलता है तो वह बहुत आहत होता है. शम्भु की पत्नी पारो को अपने पति व बेटे के बारे में चिंता होती है, तो वह उन दोनों को खोजने के उद्देश्य से शहर आ जाती है. जहाँ वह  कार से दुर्घटना का शिकार हो जाती है. शम्भु अपना सारा जमा किया हुआ रुपया अपनी पत्नी के इलाज में खर्च कर देता है वहीं दूसरी ओर अदालत द्वारा तय की गई अवधि के अंतर्गत ऋण न चुकाएं जाने के कारण शम्भु की ज़मीन की नीलामी हो जाती है और ज़मींदार उस ज़मीन को प्राप्त कर लेता है. अब उस ज़मीन पर कारखाने का कार्य आरंभ हो जाता है. जब शम्भु व उसका परिवार अपनी ज़मीन देखने के लिए गाँव आता है तो वहाँ कारखाने को देखकर अत्यंत दुखी हो जाता है और मुट्ठीभर  गंदगी कारखाने पर फेंकता है. वहाँ कारखाने के सुरक्षाकर्मी उसे बाहर निकाल देते है. बिमल रॉय की इस फिल्म में गरीब कृषकों की शहरों की तरफ पलायन की समस्या को दिखाया गया है. इस फिल्म ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनकी पहचान को स्थापित किया. यह फिल्म अंतर्राष्ट्रीय कांस फिल्म महोत्सव में पुरस्कार जीतने वाली प्रथम भारतीय फिल्म बनी. कार्लोवी वैरी फिल्म समारोह में सामाजिक प्रगति के लिए पुरस्कार दिया गया. 1953 में फिल्म फेयर अवार्ड की शुरुआत की गई थी. बिमल रॉय को सर्वश्रेष्ठ निर्देशन का व दो बीघा ज़मीन को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का फिल्म फेयर अवार्ड भी प्राप्त हुआ.
सन् 1957 में वी. शांताराम ने एक कालजयी फिल्म दो आँखें बारह हाथ का निर्माण किया. दो आँखें बारह हाथ गांधी जी के ‘ह्रदय परिवर्तन’ के दर्शन से प्रेरित होकर छ: कैदियों के सुधार की कहानी है. इस फिल्म में युवा जेलर की मुख्य भूमिका को स्वयं वी. शांताराम ने ही निभाया और फिल्म में अभिनेत्री है संध्या.
कहानी एक युवा, प्रगतिशील और सुधारवादी विचारधारा वाले जेलर आदिनाथ की है, जो कत्ल की सजा भुगत रहे छ: कैदियों को सुधारने की अनुमति प्राप्त कर एक पुराने जर्जर फार्म - हाउस में ले जाता है बस इसी प्रकार प्रारंभ हो जाता है उन्हें सुधारने का कार्य. इस फिल्म में नैतिकता का संदेश प्रस्तुत किया गया है. भारतीय समाज में नैतिकता का सदैव ही महत्वपूर्ण दर्जा रहा है. नैतिकता ही हमें गलत कार्यों को करने से रोकती है. मनुष्य यदि कोई गलत कार्य करता है तो अपराध बोध की भावना से दब जाता है. यही नैतिकता हमें गलत कार्य की तरफ कदम बढ़ाने से रोकती है. फिल्म में जेलर आदिनाथ इसी नैतिकता के बल पर खूंखार कैदियों को सुधारता है व उनके अंदर नैतिकता की भावना को उजागर करता है. यही नैतिकता उन्हें फरार होने से रोकती है. इसी नैतिकता के कारण वे अत्यधिक परिश्रम करके शानदार फसल को प्राप्त करते है. फिल्म दो आँखें बारह हाथ यह सिद्ध करती है कि चाहे कैदी हो या फिर कोई अन्य व्यक्ति सभी के अंदर एक कोमल ह्रदय है और उसमें विभिन्न प्रकार की भावनाओं का वास होता है. इस फिल्म का भरत व्यास द्वारा लिखा गया गीत है
“ऐ मालिक तेरे बंदे हम, ऐसे हो हमारे करम, नेकी पर चले.....
आज तक लोगों का पसंदीदा गीत है और अभी तक कई विद्यालयों में प्रार्थना के रूप में गाया जाता है और सभी को सत्य के मार्ग का अनुशरण करने की प्रेरणा देता है. इस फिल्म ने कई पुरस्कार प्राप्त किए सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए राष्ट्रपति के स्वर्ण पदक से इसे नवाजा गया, सर्वश्रेष्ठ विदेशी फिल्म के लिए सैमुअल गोल्डविन पुरस्कार इसे प्राप्त हुआ और 1958 में चार्ली चैपलिन के नेतृत्व वाली जूरी के अंतर्गत इसे ‘बैस्ट फिल्म ऑफ द ईयर’ का सम्मान दिया गया.
सन् 1957 में बी. आर. चोपड़ा द्वारा निर्देशित फिल्म नया दौर फिल्म आई. यदि इस फिल्म को बी. आर. चोपड़ा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म माना जाए, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. इसे उस समय की एक क्रांतिकारी फिल्म का दर्जा दिया जाता है, जैसा कि इसके नाम नया दौर  से ही प्रदर्शित होता है. मनुष्य बनाम मशीन जैसे मुख्य मुद्दे को बहुत ही संवेदनशील तरीके से दिखाया गया है. फिल्म में मुख्य भूमिका है शंकर की जिसे निभाया है दिलीप कुमार ने और फिल्म में अभिनेत्री है वैजयंती माला.
इस फिल्म के अंतर्गत मनुष्य और मशीन के मध्य लड़ाई को दिखाया गया है. जिसमें जीत आखिर मनुष्य की ही होती है. शंकर एक तांगे वाला है जो एक व्यापारी को चुनौती देता है. यह व्यापारी गरीब तांगे वालों को नजरअंदाज कर तांगों के स्थान पर सड़कों पर बसों की स्वीकार्यता का पक्षधर है. यह कहानी शंकर और कृष्णा नाम के दो मित्रों की कहानी है. जो काफी गहरे मित्र है लेकिन जब उन दोनों के मध्य एक लड़की रजनी आ जाती है तो दोनों की दोस्ती में परिवर्तन आ जाता है. गाँव के जमींदार के बेटे के गाँव में आरा मशीन व लॉरी लाने के पश्चात तो उनकी दोस्ती का कोई अर्थ ही नहीं रहता और वे दोनों एक दूसरे के दुश्मन हो जाते है. आजादी के पश्चात् मनुष्य और मशीन की लड़ाई के बीच मित्रता, प्रेम, त्याग व आजादी के पश्चात आम आदमी के होने की गाथा एक नई सिनेमा की भाषा की प्रतीक थी. गाँव के सादगीपूर्ण माहौल को फिल्म में सुंदर प्रकार से प्रस्तुत किया गया है. शोषण करने वाले जमींदार प्रत्येक ग्रामीण परिवेश में सदैव ही मौजूद रहते हैं. सामाजिक समस्या पर केंद्रित इस फिल्म ने अपने समय में काफी सफलता बटोरी और इसका कर्णप्रिय संगीत भी इसकी महत्वता को बड़ा देता है. इस फिल्म की लोकप्रियता का अनुमान तो इसी से लगाया जा सकता है कि आज भी इस फिल्म के संगीत को बड़े चाव से सुना जाता है. बी. आर. चोपड़ा एक ऐसे बेहतरीन निर्देशक थे, जो फ़िल्मी क्षेत्र में नए - नए प्रयोग करने में विश्वास रखते थे और सामाजिक समस्याओं पर केंद्रित फिल्मों का निर्माण करते थे. वहीं दिलीप कुमार और वैजयंती माला जैसे कलाकारों के माध्यम से फिल्म और भी ज्यादा उम्दा बन पड़ती है.
सन् 1973 में ऋषिकेश मुखर्जी द्वारा निर्देशित फिल्म नमक हराम आई. ऋषिकेश मुखर्जी का भारतीय सिनेमा जगत के अंतर्गत महत्वपूर्ण योगदान रहा है. उनकी फिल्मों में वास्तविक हिन्दुस्तान की झलक को देखा जा सकता है. नमक हराम फिल्म में मुख्य भूमिका निभाई है राजेश खन्ना ने उनके किरदार का नाम है सोमनाथ जो गरीबों की बस्ती में अपनी माँ व कुँवारी बहन के साथ रहता है. सोमनाथ एक उद्योगपति विक्रम का दोस्त है. विक्रम का किरदार निभाया है अमिताभ बच्चन ने. विक्रम के पिता को एक दिन हार्ट अटैक पड़ता है तो डॉक्टर द्वारा उन्हें आराम करने की सलाह दी जाती है. इस कारण से विक्रम को अपने पिताजी के कारोबार को स्वयं ही संभालना पड़ता है. इस दौरान उसका सामना उसकी कंपनी के लीडर बिपिनलाल पांडे से  होता है. जिसके अंतर्गत कंपनी में हड़ताल हो जाती है. विक्रम के पिता जी उसे बिपिनलाल से माफी मांगने के लिए कहते है. विक्रम अपने पिता की बात मान उससे माफी माँग लेता है, जिस कारण कंपनी के हालात सुधर भी जाते है. विक्रम मन ही मन अपमान की अग्नि में झुलसता है और सोमनाथ के साथ बिपिनलाल को सबक सिखाने का निर्णय लेता है. सोमनाथ विक्रम की कंपनी में एक मज़दूर के पद पर कार्यरत है और अपने सहकर्मचारियों के सहयोग से नया यूनियन लीडर नियुक्त होता है. दामोदर नामक व्यक्ति इन दोनों की दोस्ती को खत्म करने के लिए विक्रम को सोमनाथ के विरुद्ध उकसाता है. दोनों मित्रों में इस हद तक शत्रुता हो जाती है, कि दोनों एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाते है. अंत में दोनों के बीच की सारी गलतफहमियां दूर हो जाती हैं और दोनों दोस्त दोबारा मिल जाते हैं. एक बेहतरीन कहानी लिए हुए यह समाजवादी विचारधारा से प्रेरित फिल्म है. फिल्म में उच्चतम व निम्नतम वर्ग के जीवन को बड़ी ही सहजता से दिखाया गया है. सन् 1974 के फिल्म फेयर पुरस्कारों में इस फिल्म को श्रेष्ठ संवाद लेखन के लिए गुलजार व सहायक अभिनेता के लिए अमिताभ बच्चन को पुरस्कार प्राप्त हुआ था.
सन् 1975 में यश चोपड़ा द्वारा  निर्देशित हिन्दी फिल्म  दीवार आई. इस फिल्म में अमिताभ बच्चन, शशि कपूर, निरुपा रॉय व सत्येन्द्र कपूर आदि मुख्य कलाकार थे. इस फिल्म को सफलतम  फिल्मों की श्रेणी के अंतर्गत माना जाता है. इस फिल्म के द्वारा अमिताभ बच्चन ने अभिनय के क्षेत्र में उच्च स्तर को प्राप्त कर लिया था. यह माना  जाता है, कि फिल्म की कहानी अंडरवर्ल्ड डॉन हाजी मस्तान के जीवन पर आधारित है और अमिताभ बच्चन ने यही किरदार फिल्म में निभाया है| फिल्म की  कहानी  दो भाइयों के जीवन पर आधारित है  जो बचपन मे अपने   और अपने परिवार पर अत्याचार को झेलकर जिंदगी में दो अलग अलग रास्ते चुनते हैं, जो दोनो के बीच मे एक दीवार खड़ी कर देते है|
आनंद वर्मा  मज़दूर संघ के नेता है और मज़दूरों के अधिकारों  के लिए फैक्ट्री मालिकों  से लड़ाई करते है, लेकिन फैक्ट्री मालिक उसके परिवार को जान से मारने की धमकी देते है, जिस कारण  आनंद भयभीत हो उनकी बात मान लेता है. मज़दूर इससे क्रोधित हो आनंद पर जानलेवा हमला कर देते है. आनंद घर छोड़कर भाग जाता है और मज़दूरों से परेशान  होकर आनंद की बीवी सुमित्रा अपने बच्चों, विजय और रवि के साथ बंबई चली आती है. इससे पहले ही मज़दूर विजय के हाथ पर "मेरा बाप चोर है" गुदवा देते है. अपने बच्चों को पालने के लिए सुमित्रा को मज़दूरी करनी पड़ती है. विजय भी पढ़ाई छोड़कर मज़दूरी आरंभ कर देता है ताकि उसका भाई रवि पढ़ सके. बड़े होकर विजय एक फैक्ट्री मे मज़दूर बन जाता है और रवि एक पुलिस अफ़सर.  विजय को ऐसा महसूस होता  है, कि  दुनिया उसी की सुनती है जिसके पास रुपया  है और सच्चाई  के मार्ग का अनुशरण  करने पर नाकामी के सिवा कुछ हासिल नहीं किया जा सकता. इसके विपरीत  रवि सत्य और कानून में पूर्ण रूप से विश्वास करता है, परन्तु उसे क़ानून और भाई मे से सिर्फ  एक को चुनना है. रूपये कमाने की चाह  में विजय सोना तस्करी करने लगता है और फिर आरंभ होता  है विजय और रवि में संघर्ष. इस फिल्म के डायलॉग, संगीत  और कहानी काफी पसंद की गई. दीवार फिल्म में अमिताभ बच्चन का एक डायलॉग है, “मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता”. इस डायलॉग सेएक मामूली मजदूर से तस्कर बने परिश्रमी मानव की समाज के प्रति क्रोध की भावना को बखूबी दर्शाया गया है.
 इस फिल्म  ने वर्ष 1976 में कई फिल्मफेयर पुरस्कार प्राप्त किए जैसे  सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक, सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता, सर्वश्रेष्ठ कथा, सर्वश्रेष्ठ पटकथा, सर्वश्रेष्ठ संवाद और सर्वश्रेष्ठ ध्वनिमुद्रण आदि.

सन् 1979 में यश चोपड़ा द्वारा निर्देशित “काला पत्थर” हिंदी फिल्म प्रदर्शित हुई. यह कहानी धनबाद में 1975 के चासनाला की खान दुर्घटना से प्रेरित  थी. इस दुर्घटना में सरकारी आंकड़ों के अनुसार अनुसार 375 लोग मौत के शिकार हुए थे. फिल्म में  मुख्य भूमिका निभाई है  अमिताभ बच्चन, शशि कपूर, राखी, शत्रुघ्न सिन्हा, प्रेम चोपड़ानीतू सिंह, परवीन बॉबी, पूनम ढिल्लों ने. फिल्म की कहानी में विजय पाल सिंह की भूमिका को निभाया है अमिताभ बच्चन ने, जो एक कलंकित समुंद्री सेना का कप्तान है जो 300 समुंद्री यात्रियों की ज़िन्दगी को खतरे में डालकर जहाज छोड़कर भाग गई थी.

अपने किये पर विजय पाल हमेशा शर्मिंदा रहता है और एक कोयले की खान में काम करना शुरू कर देता है परन्तु वह अपना अतीत नहीं भुला पाता. सेठ धनराज एक गैर जिम्मेदार इंसान है जो खान में काम करने वालों पर ज़ुल्म करता है| विजय का अतीत एक बार फिर उसके सामने आ जाता है जब खान में बाढ़ आ जाती है और श्रमिकों को विनाशकारी स्थिति का सामना करना पड़ता है. फिल्म के अंत में संघर्ष होता है श्रमिकों को बचाने व विजय की कायरता के बीच.

सन 1983 सिनेमा जगत में मज़दूर फिल्म का पदार्पण हुआ, जिसके निर्माता बी.आर.चोपड़ा थे व निर्देशन की बागडोर संभाली थी उनके बेटे रवि चोपड़ा ने.  इस फिल्म को अभिनय से सजाया था दिलीप कुमार, राज बब्बर, नंदा, रति अग्निहोत्री, मदन पुरी व जॉनी वाकर जैसे अभिनय के धुरंधरों ने. फिल्म की कहानी कुछ यूँ थी श्रीमान सिन्हा एक कपड़े की मिल चलाते हैं और इससे मिलने वाले लाभ को भत्ते व बोनस के रूप में अपने मज़दूरों को नियमित रूप से बाँटते रहते हैं. उनके गुज़र जाने के बाद मिल की कमान उनका बेटा हीरालाल संभालता है, जिसका उद्देश्य है मिल द्वारा अपने लिए अधिक से अधिक लाभ कमाना. इस कारण हीरालाल और उसकी मिल के मज़दूरों में संघर्ष आरंभ हो जाता है, जिनका नेतृत्व करता है दीनानाथ सक्सेना. जब दीनानाथ मिल की आम मीटिंग में हीरालाल का विरोध करता है, तो हीरालाल इस जिद पर अड़ जाता है, कि दीनानाथ लिखित माफीनामा दे. दीनानाथ उसकी जिद पूरी करने के बजाय अपना इस्तीफ़ा सौंप देता है और एक संघर्षरत अभियंता अशोक माथुर की सहायता से एक अपनी मिल खोलने का निश्चय करता है.   अंततः वे सफल होते हैं, उनका उत्पादन बढ़ जाता है, वे मिल में  और अधिक मज़दूरों की नियुक्ति करते हैं और शीघ्र ही प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं.

इस प्रकार हम कह सकते हैं, कि मज़दूरों की बेबसी और मिल मालिकों / साहूकारों  से उनके संघर्ष को हिन्दी फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों का विषय बनाया और अपने-अपने अंदाज में एक अलग कहानी का रूप देकर उन्हें फिल्मी परदे पर उकेरा. इन फिल्मों के माध्यम से शोषित मज़दूर वर्ग की समस्या की ओर समाज का ध्यान आकर्षित किया गया तथा यह प्रयास किया गया कि इन फिल्मों से सामाजिक समरसता का संदेश दिया जा सके. ऐसी सामाजिक समस्या पर फिल्म बनाकर समाज को आइना दिखानेवाले फिल्मकार वास्तव में साधुवाद के पात्र हैं.
चित्र गूगल से साभार

मंगलवार, 19 मार्च 2013

कविता: मुझे जन्म दो माँ




माँ सुन रही हो
तुम्हारी कोख से
मैं तुम्हारी बेटी बोल रही हूँ
मैं जन्म लेकर
इस संसार में आना चाहती हूँ
और पिता का मान
तुम्हारा अभिमान बनना चाहती हूँ
तुम्हारे आँगन में
अपनी नन्हीं पायलों का
गुंजन करना चाहती हूँ
किन्तु डरती हूँ कि कहीं
जन्म लेने से पहले ही
कोख में मार दी जाऊँ
और यदि जन्म लूँ तो कहीं
तुम्हारे लिए अमावस का चाँद बन
दुर्भाग्य ले आऊँ
या फिर पिता के लिए
चिंतारुपी चिता बन जाऊँ
किन्तु माँ तुम ही सोचो कि
यदि मेरी भांति कन्याओं को
कोख में यूं ही
मार दिया जाता रहा तो
बेटी, बहन, पत्नी माँ जैसे पवित्र रिश्ते
इस धरा पर रह पायेंगे क्या
और यदि नारी ही धरा से
विलुप्त हो गई तो
फिर मनु का वंश कैसे बचेगा
तो माँ अब निर्णय लो
और करो साहस
मुझे जन्म देने का
क्योंकि प्रकृति को नष्ट होने से
तुम अर्थात  नारी  ही बचा सकती है
तो मेरी पुकार सुनो और
मुझे जन्म दो माँ...
चित्र गूगल से साभार 
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