शोभना सम्मान - २०१३ समारोह

रविवार, 5 अक्टूबर 2014

उत्तर (लघु कथा)

    रिद्म मंदिर के देव कक्ष में बैठी हुई बुदबुदा रही थी, “दुनिया कहती है कि तुम पत्थर हो और पत्थर कभी भी कुछ सुनते या महसूस नहीं कर सकते, लेकिन मेरी बिन कही बातों को तो तुम कैसे सुन लेते हो ? मेरी उलझनों और परेशानियों को कुछ पलों में ही सुलझा देते हो । गलत राह पर जाने से पहले ही मुझे रोक लेते हो । चाहे तुम मुझे दिखाई न दो पर मैं तुम्हें अपने आस-पास महसूस करती हूँ । चाहे मैं तुमसे लाख शिकायत करती रहूँ कि तुम मेरी विनती नहीं सुनते या फिर मैंने तुमसे जो माँगा तुमने मुझे नहीं दिया पर ये भी सच है कि तुमने मुझे हमेशा मेरी उम्मीद से ज्यादा ही दिया है । लोग कहते हैं कि तुम भगवान नहीं पत्थर की केवल एक निर्जीव मूरत भर हो  पर मुझे ऐसा क्यों लगता है कि तुम पत्थर रूप में भी सजीव मानवों के निर्जीव हृदयों के संसार में सजीव रूप में मौजूद हो  जाने मैं ठीक हूँ या फिर तुम्हें पत्थर मानने वाले वो लोग ।"
इतना कहकर रिद्म भगवान की मूर्ति के आगे आशीर्वाद लेने के लिए नतमस्तक हुई तो मूर्ति के हाथ में सजा फूल रिद्म के हाथ में आकर गिरा । रिद्म फूल को अपने हाथों में पाकर प्रसन्न हो उठी । शायद उसे उसके प्रश्न का उत्तर मिल चुका था । 

*चित्र गूगल से साभार 

मंगलवार, 29 जुलाई 2014

कविता : मेरा स्वप्न


स्वप्न सदा ही देखा करती 
जब भी जन्म धरा पे पाऊँ 
क्षत्रिय कुल में बन क्षत्राणी 
गौरव क्षात्र धर्म का बढ़ाऊँ

स्वतंत्र जियूँ स्वतंत्र मरुँ 
स्वाभिमान की खातिर 
साहस से मैं नित्य लडूँ
बन रानी दुर्गावती सी निडर 
अपनी आन पे प्राण गवाऊं 
स्वप्न सदा ही देखा करती...

प्रेम और भक्ति भरूँ हृदय में 
जग के मोह से तरी रहूँ 
रानी मीरा सी भक्त बनी मैं 
कृष्ण भक्ति से भरी रहूँ ।
वसुंधरा में ज्योति प्रेम की
हर्षित मन से नित्य जगाऊं 
स्वप्न सदा ही देखा करती...

रानी पद्मिनी सा पावन मन ले
सबका मैं सम्मान करूँ
पतिव्रता धर्म की खातिर
हर जन्म मैं संग्राम करूँ
अपने सतीत्व की रक्षा करती
जौहर कर स्वाहा हो जाऊँ
स्वप्न सदा ही देखा करती...

माँ सीता सी आदर्श नारी बन
राम के हर दुःख में साथ रहूँ
उत्साह कभी कम होने न दूँ 
उनके संग हर कष्ट सहूँ 
सभी कलयुगी रावणों का 
फिर से मैं संहार करवाऊँ
स्वप्न सदा ही देखा करती...

अपने हृदय में वात्सल्य बसा
यशोदा मैया का रूप धरूँ
गोद खिलाऊँ कान्हा को फिर 
उसकी लीलाओं में खोई रहूँ
बनकर माँ कान्हा की  
सदा के लिए अमर हो जाऊँ
स्वप्न सदा ही देखा करती...

कलम चले न व्यर्थ कभी भी
मैं लेखन को समझूँ धर्म
लिखूँ सार्थक कुछ ऐसा मैं 
जिसमें हो सर्वहित का मर्म 
अपनी कलम से समाज की
कुरीतियों को मैं चोट पहुँचाऊँ 
स्वप्न सदा ही देखा करती...


लेखिका : संगीता सिंह तोमर

रविवार, 29 जून 2014

कहानी: जश्न

 बके अपने- अपने शौक होते हैं मेरे भी कुछ शौक है. कॉलेज की पढ़ाई और घर के काम की व्यस्त दिनचर्या के बीच सुबह- सुबह डंबल उठाना, योगाभ्यास करना और अपने भाई की देखा-देखी कर शीशे के सामने बॉक्सिंग के पंच मारना. जबकि मेरी सहेलियाँ मुझसे बिल्कुल ही अलग हैं वो अपना अधिकतर समय मेकअप करके अपना चेहरा घिसने में व्यस्त रहना ज्यादा पसंद करती हैं. ऐसी ही मेरी एक सहेली है रीतू. उसका जब भी मन करता है मुँह उठाये मेरे पास वक़्त-बेवक़्त अपनी फरमाइश लेकर आ धमकती और कहती, “अगर तू मुझे अपनी सहेली मानती है तो तुझे यह करना पड़ेगा नहीं तो तू मेरी सहेली नहीं. हमारी दोस्ती समझ कि खत्म.मैं अपनी आदतानुसार किसी का दिल न दुखाने वाली लड़की उसकी बात अक्सर मान ही लेती.
     एक दिन शाम की चाय पीने के बाद अपने पढ़ाई में मस्त थी कि रीतू आ टपकी और अपनी फ़रमाइश की पोटली मेरे सामने खोल दी. उसने कहा कि इसी वक्त मुझे उसके साथ बाजार चलना पड़ेगा. उसके चचेरे भाई की शादी है और उसे कपड़ों की खरीददारी करनी है. खास बात यह थी कि रीतू सामान मेरी पसंद का खरीदना चाहती थी हालांकि मुझे पता था कि वह मेरी पसंद का कितना सामान लेगी. मैंने अपनी माँ से रीतू की फरमाइश पूरी करने की इजाजत माँगी, तो माँ ने हाँ कर दी लेकिन साथ ही साथ यह हिदायत भी दे डाली कि शाम के सात बजे से पहले  वापस आ जाना, क्योंकि शहर का माहौल खराब है.
     मैं और रीतू बाजार की ओर चल पड़े. रास्ते भर रीतू अपनी बातें सुनाती हुई गई. जिसमें अधिकतर उसकी खुद की ही तारीफ़ के कसीदे पढ़ना शामिल था. जैसे कि उसकी सुंदरता के बारे में, उसकी बहादुरी के किस्से आदि. असलियत में व्यक्तित्व तो उसका औसत से कुछ कम ही था जिसे वह सारा दिन मेकअप पोतकर आकर्षक बनाने का निष्फल प्रयास करती थी. अब उसकी बहादुरी के बारे में मैं पूरी तरह आश्वस्त नहीं हूँ क्योंकि मुझे उसकी बातों में कभी सच्चाई नहीं लगती क्योंकि मेरा मानना है कि जब इंसान सच बोलता है तो उसकी आँखों में एक अलग ही तरह की चमक होती है, लेकिन जब ही वह कोई अपना ऐसा किस्सा सुनाती तो उसकी आँखों में उस चमक का सदैव अभाव रहता. उसकी हमेशा आदत है कि वह अपने आप को हमेशा श्रेष्ठ बताने का प्रयास करती है और अपने आगे किसी की खूबियों को कोई महत्व नहीं देती. मुझे याद है एक दिन मेरे कमरे में लगे आइने के सामने अपने बालों को ठीक करते हुए उसने मुझसे एक प्रश्न पूछा कि तू इस बारे में क्या सोचती है? मैंने पूछा किस बारे में? वह बोली यही कि हम दोनों में ज्यादा सुंदर कौन है? फिर खुद ही जबाव भी दे दिया कि देख अगर तू इस गलतफहमी में है कि तू ज्यादा सुंदर है तो इसे भूल जा क्योंकि तू मेरे सामने कुछ भी नहीं है. मैं उसका जबाव सुनकर मुस्कुरा दी. हमारे पड़ोस में रहने वाली आठ वर्ष की नीरू हमारे सामने बैठी हुई थी वह तपाक से बोली कि रीतू दीदी कभी अपने चेहरे से यह किलो भर का मेकअप हटाए बिना अपना चेहरा दिखाइए तो पता चले भी कि आप कितनी सुंदर है. यह सुनते ही वह बुरी तरह चिढ़ गई थी. रीतू से मेरी पहचान तब से है जब मैं पाँच वर्ष की थी. वह मेरी सहपाठिन रही है. हम दोनों की शिक्षा साथ- साथ ही हुई. बचपन में वह पढाई- लिखाई में काफी अच्छी थी इस कारण हम दोनों में दोस्ती हुई लेकिन अब उसकी पढ़ाई में कुछ खास दिलचस्पी नहीं है. बस हर वर्ष उत्तीर्ण होने लायक तक अंक ले आती है और कहती है वह अपने जीवन से संतुष्ट है. कम से कम फेल तो नहीं हुई. उसकी मम्मी हमेशा मेरे सामने उसकी आदतों का रोना रोती रहती. उनकी हमेशा शिकायत रहती कि मेरे तीन बेटे है और सिर्फ रीतू एक लड़की. तीनों बेटे अपनी पढ़ाई में हमेशा बेहतर करते है लेकिन रीतू कभी भी अपनी पढ़ाई को गंभीरता से नहीं लेती. खास बात यह है कि वह अपने बेटों पर इतना ध्यान नहीं देती लेकिन अपनी बेटी को किसी सुविधा का अभाव नहीं होने देती और घर के काम को सीखने में भी उसे कोई ज्यादा दिलचस्पी नहीं है बस अपने में खोई रहती है. वह अक्सर कहती हैं कि मैं उसकी इतने वर्षों से सहेली हूँ वह मेरी बात जरूर मानेगी. मैं उसे समझाया करूँ. उसके भाइयों ने भी मुझसे कई बार कहा कि वह उनके कहे को अक्सर नजरंदाज करती है  मैं उसकी आदतों में बदलाव करने की कोशिश करूँ लेकिन मैंने इस बारें में उससे कई बार बात करने की कोशिश की लेकिन सब बेकार उससे बात करना ऐसा था मानो भैंस के आगे बीन बजाने जैसा. उसका जबाव मुझे यह मिलता कि मैं ज्यादा दार्शनिक बनने का नाटक न करूँ. कई बार मैंने उससे अपनी दोस्ती भी खत्म करनी चाही तो उसकी मम्मी मुझसे कहती बेटी एक तू ही तो है जिसकी बात वह मानती है अगर तूने उसका साथ छोड़ा तो जो वह थोड़ा हमारे नियंत्रण में है वह भी निकल जाएगी. लेकिन उसकी मम्मी को असलियत कौन समझाए कि वह कितना मेरी बात मानती है. वह तो अपने आगे किसी को कुछ नहीं समझती. आंटी का दुःख देखकर मैं अपना इरादा बदल लेती.
    सनकीपन में भी उसका कोई सानी नहीं. एक बार रीतू की मम्मी का मुझे सुबह- सुबह फोन आया और मुझे अपने घर आने के लिए कहा. मैंने कारण जानना चाहा तो उन्होंने पहले मुझे अपने घर पहुँचने के लिए कहा.मैंने उनको उस दिन शाम को उनके घर पहुँचने का वादा किया. मैं शाम को उनके घर पहुँची तो आंटी मुझे रीतू के कमरे में ले गई. उसकी हालत ज्यादा खराब थी, मैंने उसकी ऐसी स्थिति का कारण जानना चाहा तो आंटी ने बताया कि एक महीने से यह व्रत किए हुए है अन्न ग्रहण नहीं कर रही. मैंने रीतू से पूछा ऐसा क्यों कर रही है तो वह बोली भगवान को खुश करना है. मैंने कहा भगवान भी अपने भक्तों को कष्ट में देखना पसंद नहीं करता वह बोली मेरी मर्जी मैं इसी तरह उनकी पूजा करती हूँ. उसकी मम्मी उसकी हालत देख कर रोने लगीं. उस दौरान वह अपनी जिद की वजह से मरते- मरते बची.
    इन सब घटनाओं में खोये हुये बाज़ार कब आ गया कि पता ही नहीं चला. वहाँ पहुँचते ही उसने खरीदारी शुरू कर दी. रीतू खरीदारी करने में इतनी मशगूल हो गई कि शाम के सात बजने को आए लेकिन उसकी खरीदारी पूरी न हुई. मैंने उससे कहा कि हमें इतने समय तक घर पहुँचना था अब काफी समय हो चुका है तो हमें यहाँ से निकलना चाहिए. उसने कहा बस कुछ देर में ही निकलते हैं थोड़ा सामान लेना बाकी है. उसका थोड़ा समान लेते- लेते ही रात के आठ बज गए. मेरे दिल की धड़कने बढ़ने लगीं. मैंने उसे कहा चलना है तो चले वरना मैं उसे छोड़कर अकेले घर जा रही हूँ जब उसने वापस चलने के लिए कोई उत्साह न दिखाया तो गुस्से में मैं ही वहाँ से चल दी. आख़िरकार वह भी मेरे पीछे- पीछे चल ही पड़ी. हमने काफी देर इंतज़ार किया लेकिन कोई सवारी का साधन न दिखाई दिया. आखिर एक खाली रिक्शा सामने से आता हुआ दिखा. मैंने उस रिक्शेवाले को रोका और उससे निश्चित स्थान और किराया तय कर हम दोनों उसके रिक्शे में बैठ कर वापस घर की ओर चल दिये. मैं गुस्से में रिक्शे पर चुपचाप बैठी हुई थी और रीतू इसलिए चुपचाप बैठी थी क्योंकि वह मुझसे कुछ बातकर मेरे गुस्से को और अधिक बढ़ाना नहीं चाहती थी. एकदम से रिक्शेवाले में न जाने कहाँ से ऊर्जा का संचार हुआ कि वह रिक्शा तेजी से चलाने लगा या देशी भाषा में कहें कि रिक्शे को उड़ाने लगा. फिर अचानक ही उसे जाने क्या सूझा कि उसने अपने रिक्शे को एक सुनसान गली की तरफ मोड़ दिया. मैंने उससे कहा कि वह गलत रास्ते पर रिक्शा क्यों ले जा रहा है? जब उसने कोई जवाब नहीं दिया तो मैंने उसे डाँटते हुये रिक्शा उसी वक़्त रोकने को कहा. अब रिक्शेवाले ने विलेन का रूप धारण कर धमकाते हुये कहा, “लड़की अगर जिन्दा रहना चाहती है तो चुपचाप बैठी रह.किसी अनहोनी की आशंका से मेरा दिल काँप उठा और मैं चलते हुये रिक्शे से कूंद गई तथा अपने दोनों हाथों से रिक्शे को पीछे से पकड़कर रोक लिया. उस आदमी ने बहुत कोशिश की रिक्शा खीचनें की लेकिन मेरे हाथों में कसरत कर-करके इतनी ताकत आ चुकी थी कि वह रिक्शे को एक इंच भी आगे न बढ़ा सका. अब मैंने उस रिक्शेवाले को रिक्शे से उतारा और उसके दो-चार हाथ धर दिये. तभी हमारे पास एक फौजी अंकल दौड़ते हुये आए और सारे माजरे के बारे में पूछने लगे. जब मैंने उन्हें सारा घटनाक्रम बताया तो उन्होंने ने भी उस रिक्शेवाले पर अपने हाथों की खुजली मिटा ली और उसे पकड़ कर पुलिस थाने की ओर रवाना हो गए. इतना सब कुछ हो चुका था लेकिन मेरी तथाकथित बहादुर सहेली रिक्शे पर सुन्न हालत में बैठी रहकर अपनी तथाकथित बहादुरी का प्रदर्शन करने में मशगूल थी. मैंने उसे पकड़कर हिलाया तब जाकर वह होश में आई. रीतू के साथ चलते हुये मैं घर के दरवाजे पर पहुँची तो रीतू ने मुझे वहीं से विदा किया और अपने घर चली गई. मैं अपने घर का दरवाजा खटखटा रही थी इस उम्मीद के साथ कि जल्दी से माँ दरवाजा खोलें और मैं फ्रिज में रखा हुआ ढोकला निकालकर खाते हुये रीतू को अपनी मित्रता सूची में से हमेशा के लिए हटाने का जश्न मनाऊँ. 

गुरुवार, 22 मई 2014

स्वर्ग-नर्क (लघु कथा)

रामू को चार साल की उम्र में ही उसकी माँ उसे छोड़कर इस दुनिया से चली गई. हालाँकि वह अपने मोहल्ले का लाड़ला था, लेकिन अपने बाप की नियम से डांट और मार खाता था. बाप पूरे दिन दारू पिए घर पर पड़ा रहता था. चाहे गर्मी हो या कड़ाकेदार सर्दी हो या फिर तेज बारिश हो  रामू सुबह नियम से जल्दी उठता था और काम पर चला जाता था. वह पूरे दिन मेहनत से काम में लगा रहता था. आज भी वह भूखे पेट ही सुबह से ढाबे पर बर्तन धोने में लगा हुआ था तभी सामने से एक आदमी अपने कुत्ते को लिए आता हुआ दिखा. उसने ढाबे पर पहुँचकर ढाबे के मालिक को अपने कुत्ते के लिए फ्राई चिकन लाने का ऑर्डर दिया. मालिक ने रामू को इशारा किया. रामू ने अपने मालिक द्वारा दिये गए हुक्म का पालन किया. कुत्ता रामू द्वारा परोसे गए फ्राई चिकन को मजा लेते हुये खाने में मस्त हो गया. रामू दुखी मन से कुत्ते की ओर देखते हुए सोचने लगा, “कहते हैं कि इस दुनिया के बाद मनुष्य अपने कर्मों के आधार पर स्वर्ग या नरक को पाता है. यह कुत्ता जानवर होकर भी इतना अच्छा भोजन खाकर अपना जीवन मजे में बिता रहा है और मैं पूरा दिन भूखे पेट काम करता रहता हूँ, अपने मालिक की डांट-फटकार सहन करता हूँ और काम करने के बाद का जो पैसा मिलता है उसे मेरा बाप हजम कर लेता है और  मारता- पीटता है सो अलग. इस धरती पर इस कुत्ते का जीवन स्वर्ग से कम है क्या और मेरा जीवन नरक से कम तो नहीं.” इतना सोचते- सोचते रामू की आँखों में पानी भर आया.

शुक्रवार, 14 मार्च 2014

पछतावा (लघु कथा)

होली के त्यौहार में बस कुछ ही दिन बाकी थे. संजू और उसके दोस्त को इन दिनों शरारत सूझ रही थी.  वे दोनों ढेर सारे गुब्बारे ले आए और उनमें पानी भर-भरके चार मंजिला इमारत की छत से हर आते-जाते राहगीर को शिकार बनाते और जब कोई छत पर उन्हें पकड़ने के लिए आने की सोचता तो दोनों वहाँ से रफू-चक्कर हो जाते. जब भी उनके द्वारा ऊँचाई से मारा गया गुब्बारा किसी के बदन को छूता तो कुछ पल के लिए वह तिलमिलाकर रह जाता.  दो दिनों में ही उनके सारे गुब्बारे खत्म हो गए, लेकिन उनके भीतर की शरारत करने की इच्छा अभी खत्म नहीं हुई थी. अब उन्होंने घरों में खाली पड़ीं दूध की थैलियों का अपनी शरारत में इस्तेमाल करने का निश्चय किया. दूध की थैली को पानी से भरकर वे दोनों छत की ओट में छिपकर शिकार का इंतज़ार करने लगे. तभी एक महिला धीमी चाल में नीचे से गुज़री. जल्दबाजी में संजू ने निशाना साधकर पानी से भरी हुई दूध की थैली उसकी पीठ पर दे मारी. वह महिला चीख के साथ ज़मीन पर औंधे मुँह गिरी. आसपास लोगों की भीड़ लग गई. संजू और उसका दोस्त डर के मारे वहाँ से लापता हो गए. देर शाम को जब संजू अपने घर पहुँचा तो उसके घर के बाहर आस-पड़ोस के लोग इकठ्ठा हो रखे थे. वह घर के भीतर घुसा तो माँ के संग पूरे परिवार को रोते पाया. बाद में पता चला कि जिस महिला को उन्होंने पानी से भरी थैली मारी थी वह उसकी बड़ी दीदी थी. जब पानी की थैली उसकी दीदी की पीठ पर लगी तो वो पेट के बल गिर पड़ीं और उनकी हालत इतनी नाजुक हो गई कि हॉस्पिटल के  इमरजेंसी वार्ड में भर्ती करवाना पड़ा. जहाँ दीदी के पेट में गंभीर चोट आने के कारण मरा हुआ बच्चा पैदा हुआ. यह खबर पता चलते ही संजू की आँखों से आँसुओं का सागर बहने लगा. उसे अपनी द्वारा की गई शरारत के नाम पर की हुई गंभीर भूल पर पछतावा हो रहा था.


चित्र गूगल से साभार 

गुरुवार, 2 जनवरी 2014

हाउस वाइफ बनाम सर्वेन्ट (लघु कथा)

कालेज के ग्राउंड में सभी दोस्त ग्रुप बनाकर आपस में बातचीत करने में मस्त थे.
दीपा, जो अपने आपको कुछ ज्यादा ही स्मार्ट समझती थी, ने यूँ ही अतुल से पूछ डाला, “कालेज की पढ़ाई के बाद भविष्य में तू क्या करेगा?
अतुल बोला, "मैं अपने देश का राष्ट्रपति बनूँगा."
दीपा व्यंग्यात्मक हँसी हँसते हुए उससे बोली, “तुझे इंग्लिश बोलनी तो आती नहीं और देख रहा है राष्ट्रपति बनने के सपने. तू राष्ट्रपति तो बनने से रहा. हाँ लेकिन तुझे उसके घर झाड़ू-पोछा का काम जरूर मिल जाएगा.”
अतुल यह सुन हताश हो गया. दीपा इसी तरह सभी से प्रश्न करती रही और सबका मज़ाक उड़ाती रही. आखिर में सुरभि की बारी आई.
दीपा ने इतराते हुए उससे भी पूछा, “अब तू भी बता दे कि तू क्या बनने के ख्वाब देख रही है?”
सुरभि ने जबाव दिया, “मैं उच्च शिक्षा प्राप्त करूँगी.”
दीपा ने पूछा, ”इस ख्वाब को तो हम सब ही देख रहे हैं, लेकिन फिर उसके बाद क्या करेगी?
सुरभि बोली, “उसके बाद मैं अपने माँ-बाप द्वारा खोजे गए लड़के से विवाह करूँगी.”
दीपा ने बेचैन होकर फिर पूछा, “अरे विवाह तो हम सबको ही करना है. इस लल्लू छाप मोनू के भी दिमाग में यही बात है, कि पढ़ने-लिखने के बाद ये भी सो काल्ड विवाह करेगा. बट आफ्टर विवाह व्हाट विल यू डू देवी जी?”
सुरभि धीमे से मुस्कुराई और बोली, “फिर मैं एक आदर्श गृहणी बनकर अपना जीवन बिताऊंगी. आइडल हाउस वाइफ इन योअर लेंग्वेज.”  
दीपा खीसें निपोरती हुई बोली“यू मीन टू से सर्वेंट”.
सुरभि ने दीपा से पूछा“वैसे तुम्हारी मम्मी क्या नौकरी करती हैं?
दीपा ने जबाव दिया, "सी इज अ हॉउस वाइफ".
सुरभि ने मुस्कुराते हुए कहा, "इट मीन्स सी इज आलसो अ सर्वेंट".
दीपा की अचानक बोलती बंद हो गई.

शुक्रवार, 2 अगस्त 2013

सिनेमा जगत में देशभक्ति से परिपूर्ण फिल्मों की भूमिका

स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी ने सच ही कहा है
तुजसांठी मरण ते जनन, तुजवीण जनन ते मरण!
अर्थात हे मातृभूमि! तेरे लिए मरना ही जीना है और तुझे भूल कर जीना ही मरना है!
देशभक्ति एक ऐसी भावना है जिसके बिना मनुष्य एक पशु के समान है. इसी देशप्रेम की भावना के बल पर अनेक क्रांतिकारी फाँसी के फंदे पर हँसते- हँसते झूल गए. यह देशप्रेम ही है जो सीमा पर सैनिक अपनी व अपने परिवार की चिंता छोड़कर अपनी मातृभूमि की रक्षा की खातिर रात-दिन देश की सीमा पर पड़ा रहता है और अपने कर्तव्य का पालन करता है. देश के प्रति ईमानदारीपूर्वक अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करना भी देशभक्ति ही है. अनेक रचनाकारों ने देशभक्ति से ओत-प्रोत रचनाओं का निर्माण किया है, जिन्हें पढ़कर देशप्रेमियों के भीतर देशप्रेम की भावना का संचार होता है. इसी देश प्रेम की भावना को हृदय में बसाए हुए फिल्मकारों द्वारा देश भक्ति से परिपूर्ण  अनेक हिन्दी फिल्मों का निर्माण किया गया.
     
इस कड़ी में सन् 1952 में “आनन्दमठ” हिन्दी फीचर फिल्म प्रदर्शित हुई. यह फिल्म बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय के प्रसिद्ध बंगाली उपन्यास “आनंद मठ” पर आधारित तथा हेमेन गुप्ता द्वारा निर्देशित एक ऐतिहासिक देशभक्ति से परिपूर्ण फिल्म है. इस फिल्म की कहानी पूर्वी भारत में हुए, मुख्यरूप से बंगाल में, सन्यासी विद्रोह पर आधारित है. इस फिल्म में पृथ्वीराज कपूर, भारत भूषण, गीता बाली, प्रदीप कुमार और अजीत ने अभिनय किया है. इस फिल्म में एक गीत है “वंदे मातरम”. इस गीत ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान देश भक्ति की भावना जाग्रत करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की तथा जब 1947 ई. में हमारा देश आजाद हुआ, तब यह भारत का राष्ट्रीय गीत घोषित कर दिया गया. हालाँकि भारतीय राष्ट्रीय गीत को भारतीय राष्ट्रीय गान से ज्यादा प्रभावपूर्ण माना जाता है.
      
सन् 1965 में शहीद फिल्म आई जिसका निर्देशन किया एस. राम शर्मा ने. यह फिल्म  भगत सिंह के जीवन पर आधारित है. भगत सिंह की भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका थी. उनका व्यक्तित्व आज भी भारतीय युवाओं के लिए एक प्रेरणास्रोत है. फिल्म में मुख्य कलाकार हैं मनोज कुमार, जिन्होनें भगत सिंह का किरदार निभाया है. अन्य कलाकार हैं कामिनी कौशल, प्राण, निरुपमा रॉय और प्रेम चोपड़ा इत्यादि. इस फिल्म की कहानी 20 वीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में ‘लोहड़ी’ त्यौहार से आरंभ होती है. गाँव के   रईस आदमी के घर लोहड़ी का आयोजन हुआ है, यहाँ किशन सिंह अपनी पत्नी व बच्चे भगत सिंह के साथ आए हुए हैं. इसी दौरान अंग्रेजों के जुल्मों से परेशान एक किसान मदद के लिए आता है. किशन सिंह का भाई अजीत सिंह मदद के लिए आगे बढ़ता है और अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध ‘विद्रोह’ का आरंभ कर देता है. किशन सिंह अपने भाई को मुल्क छोड़ने के लिए कहते हैं. अजीत सिंह अपने परिवार व मित्रों को छोड़कर बाहर चले जाते हैं. बालक भगत सिंह के बाल मन में अनेक प्रश्न उठने लगते हैं, कि चाचा को देश क्यों छोड़ना पड़ा? देश पर अंग्रेजों का शासन क्यों है? इस घटना को गुज़रे हुए कई साल हो जाते हैं और फिर से  लोहड़ी का त्यौहार आता है. गाँव के एक जालिम और रसूखदार इंसान के यहाँ लोहड़ी का आयोजन किया जाता है, उस ज़ालिम इंसान के जुल्म के खिलाफ गुहार लगाने के लिये एक पीड़ित किसान गाँव वालों के बीच पहुँचता है. उस ज़ालिम व रसूखदार इंसान के अन्याय के विरुद्ध भगत सिंह आवाज उठाता है. इस प्रकार एक क्रांतिकारी का जन्म हो चुका होता है. स्वाधीनता आंदोलन के प्रत्येक हिन्दुस्तानी को जागरूक करने में ‘हिन्दुस्तान सामाजिक संगठन’ ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया था. भगत सिंह इस संगठन के एक सक्रिय सदस्य थे. यहाँ पर सुखदेव, राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद, दुर्गा भाभी जैसे क्रांतिकारी हैं. भगत सिंह इस समूह के भीतर ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा लगाते हुए प्रवेश कर जाते हैं. फिल्म में दिखाया जाता है कि लाला लाजपत राय साईमन कमीशन के विरोध में शांतिपूर्वक जुलूस लेकर निकले हैं, भारी समर्थन के साथ यह लाहौर की सड़कों पर बढ़ रहा है. अंग्रेजी शासन इसे आगे नहीं बढ़ने देना चाहते व वे इसे रोकते हैं. लाला जी इस बात का विरोध करते हैं. पुलिस लाठीचार्जकर देती है. जिसके परिणामस्वरूप लाला जी शहीद हो जाते हैं. लाला जी की मौत का बदला लेने के लिए भगत सिंह व अन्य क्रांतिकारी एक होकर योजना बनाते हैं. क्रांतिकारी लाहौर के मुख्य पुलिस हाकिम ‘स्काट’ की हत्या की योजना बना पाते हैं. परन्तु मामूली सफलता के साथ केवल डिप्टी सांडर्स’ मारा जाता है. इस घटना के बाद पुलिस भगत सिंह व उनके साथियों को खोजने लगती है जबकि भगत सिंह भेष बदलकर अंग्रेजों की आँखों में धूल झोंककर अपने काम में सक्रिय रहते हैं.
इसी समय राजधानी दिल्ली में ‘डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट’ पास करने के लिए ब्रिटिश हुकूमत अपनी जिद पर अड़ी हुई है. केंद्रीय विधान सभा में भी इस पर विमर्श हो रहा है. इस बिल को पास न होने देने के लिए भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त असेम्बली में बम फेंक देते हैं. इस बम कांड में किसी को कोई आंच नहीं आती. दरअसल बम का फेंकने का उद्देश्य केवल सदन की कार्यवाही को भंग करना था. क्रांतिकारी बम फोड़ने के बाद ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारे लगाते हैं व इस एक्ट के विरोध में छपवाए गए पर्चे सदन में फेंकते हैं. भगत सिंह व उनके साथियों पर मुकदमा चलता है. अंग्रेज भगत सिंह और सुखदेव पर हुकूमत का मुखबिर बनने के लिए दबाब डालते है. वे दोनों इस इस कार्य को करने से मना कर देते है. क्रांतिकारियों के बारे में सच्चाई जानने के लिए भगत सिंह और सुखदेव को बहुत यातनाएं दी जाती हैं, लेकिन वे अपना मुँह नहीं खोलते. फिल्म में रामप्रसाद बिस्मिल के द्वारा लिखे गीतों को स्वरबद्ध किया गया है. ‘सरफरोशी की तमन्ना’ गाने को मुहम्मद रफी व अन्य गायकों ने साथ में  बहुत सुंदर तरीके से गाया है.

सन् 1967 में मनोज कुमार द्वारा निर्देशित उपकार फिल्म प्रदर्शित हुई. यह एक राष्ट्रवादी फिल्म है. इस फिल्म के अंतर्गत प्राच्य व पाश्चात्य मूल्यों की भिन्नता को सुंदर तरीके से प्रस्तुत किया गया है. फिल्म की कहानी में राधा नाम की महिला है जिसका किरदार निभाया है कामिनी कौशल ने. उसके दो पुत्र हैं भारत व पूरण. भारत के पात्र को निभाया है मनोज कुमार ने व पूरण की भूमिका निभाई है प्रेम चोपड़ा ने. राधा एक ग्रामीण महिला है, जो अपने परिवार को खुश देखना चाहती है. उसका सपना है कि उसके बेटे भी पढ़- लिखकर बड़े आदमी बने. लेकिन उसका इतना सामर्थ्य नहीं है कि वह उनकी पढ़ाई का इतना खर्चा उठा सके. आखिर भारत अपनी इच्छाओं को तिलांजलि दे देता है और पूरण पढ़ने के लिए विदेश चला जाता है. पूरण जब अपनी पढ़ाई पूरी करके वापिस लौटता है, तो वह आराम की जिंदगी का आदी हो चुका होता है और इसके लिए वह किसी भी हद तक जा सकता है. इनके परिवार में दरार डालने का काम करता है इनके पिता का हत्यारा चरणदास. चरणदास पूरण को संपति का बँटवारा करने के लिए भड़काता है. पूरण जो स्वार्थी स्वभाव का है संपति के बँटवारे के लिए जिद पकड़ लेता है. भारत स्वेच्छा से सारी संपत्ति  को पूरण के पक्ष में छोड़कर भारत- पाकिस्तान के युद्ध में लड़ने चला जाता है. जबकि पूरण दवाओं की कालाबाजारी व तस्करी करने लग जाता है और कालाबाजारी कर ग्रामीणों को बेवकूफ बनाता है. चरणदास भारत को मारने का षड्यंत्र रचता है, लेकिन विकलांग मलंग उसको बचा लेता है. घायल मलंग को बचाने में डॉ. कविता मदद करती है. दूसरी ओर पूरण भी गिरफ्तार हो जाता है. उसको अपने द्वारा किए गलत कार्य का एहसास होता है और वह तस्करों का खात्मा करने में सरकार की मदद करता है.
 यह फिल्म देशभक्ति के भाव को सशक्त तरीके से प्रस्तुत करती है. फिल्म का संगीत कर्णप्रिय है. यदि कुल मिलाकर देखा जाए तो यह फिल्म एक सराहनीय प्रस्तुति थी.

सन् 1970 में पूरब और पश्चिम फिल्म का पदार्पण हुआ. जिसे निर्देशित किया मनोज कुमार ने. इस फिल्म में अभिनय किया मनोज कुमार, सायरा बानू, अशोक कुमार, प्राण और प्रेम चोपड़ा ने. फिल्म की कहानी में 1942 ई. में ब्रिटिश भारत में हरनाम नामक एक गद्दार ईनाम के लालच में एक स्वतंत्रता सेनानी को धोखा देता है, स्वतंत्रता सेनानी मारा जाता है और अपने पीछे छोड़ जाता है बेसहारा पत्नी गंगा व बच्चे. 1947 में भारत की आजादी के बाद स्वतंत्रता सेनानी का पुत्र बड़ा हो जाता है और उच्च शिक्षा के लिए लन्दन के लिए चला जाता है. जब वह ब्रिटेन जाता है जहाँ वह अपने पिता के कॉलेज के दोस्त शर्मा, उनकी पाश्चात्य पत्नी, बेटी प्रीति और हिप्पी बेटे से मिलता है. प्रीति पाश्चात्य संस्कृति में डूबी हुई  लड़की है, जो मिनी स्कर्ट पहनती है. धूम्रपान व शराब का सेवन करती है. उसे भारतीय मूल्यों के बारें में कोई जानकारी नहीं होती जब तक कि वह भारत से नहीं मिलती.
भारत यह देखकर आश्चर्यचकित हो जाता है, कि विदेश में कई भारतीय अपने भारतीय होने पर शर्मिंदा होते हैं और उन्होंने अपने नाम भी बदलकर अंग्रेजों की भांति रख लिये हैं. प्रीति और भारत एक दूसरे को पसंद करने लगते है. प्रीति भारत के आदर्शवाद से प्रभावित होती है उससे शादी करना चाहती है लेकिन भारत देश में रहना नहीं चाहती.
भारत चाहता है कि वह भारत देश आए और यहाँ आकर देखे कि वह किस चीज को ठुकरा रही है. हमारी भारतीय संस्कृति ऐसी हैं, जो संस्कारों से पूर्ण है और परायों को भी अपनापन देने में भी नहीं हिचकती. अंत में प्रीति भारतीयता से प्रभावित होती है और धूम्रपान करना, शराब पीना व मिनी स्कर्ट पहनना छोड़कर भारतीय संस्कृति को अपना लेती है. फिल्म के गीत ‘जब जीरो दिया मेरे भारत ने’ में अपने देश भारत की सारी खूबियों का बड़ी खूबसूरती से बखान किया गया है. सभी गाने बेहतरीन है जो भारतीय संस्कृति की सर्वोच्चता को प्रस्तुत करते है. यदि यह कहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगी कि यदि किसी को भारतीय संस्कृति को भली-भांति समझना है तो वह इस फिल्म को देखकर समझ सकता है.

सन् 1981 में क्रांति फिल्म आई जिसका निर्देशन किया मनोज कुमार ने. इस फिल्म में अभिनय किया दिलीप कुमार, शशि कपूर, शत्रुहन सिन्हा, हेमा मालिनी, परवीन बाबी, सारिका, प्रेम चोपड़ा आदि. इस फिल्म की कहानी को लिखा जावेद अख्तर ने. यह फिल्म
1825 से 1875 ई. के बीच के स्वतंत्रता संग्राम के ऊपर आधारित है. इस कहानी के अंतर्गत दो सेनानी सांगा और भारत के संघर्ष की स्थिति को बड़े ही प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया गया है. कहानी की शुरुआत रामगढ़ राज्य से होती है. यहाँ के राजा लक्ष्मण सिंह का ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ सिपाही सांगा है. राजा अंग्रेजों को अपने बंदरगाह को उपयोग करने की अनुमति दे देता हैं, परन्तु अंग्रेज राजा के साथ धोखा करते है और चुपचाप चोरी से सोने और आभूषण का निर्यात करते हैं व उसके बदले में गोला बारूद लाते हैं. सांगा इस पर रोक लगाता है और इस बारे में राजा को बताने जाता है, लेकिन राजा की हत्या हो चुकी होती है. सांगा पर हत्या का आरोप लग जाता है और उसे राजद्रोही घोषित कर दिया जाता है. सांगा भाग जाता है और अपनी एक अलग फ़ौज बनाता है, जिसे क्रांति का नाम देता है.
सत्ता हथियाने के पश्चात अंग्रेजों का जनता पर अत्याचार आरंभ हो जाता है. सांगा का परिवार भी उससे बिछड़ जाता है. सांगा का एक बेटा शक्ति राजमहल पहुँच जाता है और दूसरा सांगा के साथ लड़ाई में साथ देता है. बाद में शक्ति को भी अपनी सच्चाई का पता चलता है और वह भी अंग्रेजों के खिलाफ इस लड़ाई में उनके साथ हो लेता है. आखिरकार  अंग्रेजों की हार होती है. क्रांति फिल्म हमारे भारत देश की गौरवपूर्ण गाथा की कहानी है.
यह फिल्म भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का ऐसा रोमांचक प्रस्तुतिकरण करती है, कि दर्शक आश्चर्यचकित रह जाते हैं. मनोज कुमार एक अच्छे निर्देशक के साथ ही एक अच्छे अभिनेता भी हैं. सभी कलाकारों का अभिनय बेहतरीन है. इस फिल्म के सभी गाने कर्णप्रिय हैं. ‘चना जोर गरम’ , ‘क्रांति’ और ‘अब के बरस’ गाने श्रोताओं में आज भी देशभक्ति की भावना का संचार कर तन-मन में जोश भर देते है. 1980 के दशक के दौरान यह सबसे महँगी फिल्म थी तथा इस फिल्म ने सर्वाधिक आमदनी भी की. यह लगातार 67 सप्ताह तक सिनेमाघरों में चली व इसने गोल्डन जुबली भी मनाई.

बॉर्डर फिल्म सन् 1997 में आई. इसको इसे निर्देशित किया जे. पी. दत्ता ने. इस फिल्म के कलाकार हैं सन्नी देओल, जैकी श्रॉफ, सुनील शेट्टी, अक्षय खन्ना, तब्बू, कुलभूषण खरबंदा इत्यादि. फिल्म के नाम से ही अनुमान लगाया जा सकता है, कि फिल्म जंग पर आधारित है. इस फिल्म की कहानी 1971 ई. में हुए भारत पाकिस्तान के युद्ध से प्रेरित है. राजस्थान के लोनगेवाला पोस्ट पर 120 भारतीय जवान पूरी रात पाकिस्तान टैंक रेजिमेंट से  सामना करते हैं. फिल्म 1971 ई. की जंग के ऐलान से पहले के घटनाक्रम के दृश्य से आरंभ होती है, जहाँ मेजर कुलदीप सिंह को 120 जवानों के साथ लोनगेवाला पोस्ट पर भेजा जाता है. वही दूसरी तरफ मेजर  बाजवा को जैसलमेर में हवाई बेस बनाना का हुक्म मिलता है. फिल्म आगे बढ़ती है. जिसमें जवानों के परिवारों की कहानी दिखाई गई है. धर्मवीर है जल्द ही उसकी शादी होने वाली है और उसकी एक नेत्रहीन माँ है. भैरव सिंह की नई शादी हुई है. रतन सिंह के माँ-बाप उसकी राह देख रहे हैं. मथुरा दास की पत्नी बीमार है इस कारण वह छुट्टी चाहता है. कुलदीप सिंह की पत्नी उसके तबादले के लिए जोर डालती है. फिल्म भिन्न-भिन्न जगहों से आए हुए जवानों के बीच जो रिश्ते बनते है उन्हें दिखाती  है. फिल्म में युद्ध पर केंद्रित परिदृश्य को बेहतरीन तरीके से दर्शाया गया है. अच्छी पटकथा, बढ़िया संगीत फिल्म में प्रस्तुत किया गया है. ‘संदेशे आते है’ गीत में  बड़े ही सुंदर तरीके से फौजियों के मन की भावना को दर्शाया गया है वहीं ‘मेरे दुश्मन मेरे भाई’ गाना मन को भावुक कर देता है. सन्नी देओल ने अपने सशक्त अभिनय के माध्यम से इस फिल्म में ऊर्जा भर दी है. बाकी सभी कलाकारों का अभिनय भी बेहतरीन है.

सन् 2006 में रंग दे बसन्ती फिल्म प्रदर्शित हुई. इस फिल्म को निर्देशित किया राकेश ओम प्रकाश मेहरा ने. फिल्म के मुख्य कलाकार आमिर खान, सिद्धार्थ नारायण, सोहा अली खान, कुणाल कपूर, माधवन, शरमन जोशी, अतुल कुलकर्णी और ब्रिटिश अभिनेत्री एलिस पैटन हैं. फिल्म की कहानी एक ब्रिटिश वृत्तचित्र निर्माता की है जो अपने दादा की डायरी प्रविष्टियों के आधार पर भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों पर फिल्म बनाने के लिए भारत आती है. वह भारत में क्रांतिकारियों के बारे में एक वृत्तचित्र के निर्माण की मन में इच्छा  लेकर आती है. उसका उद्देश्य भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद व उनके साथियों के ब्रिटिश तानाशाही के खिलाफ हुए संघर्ष के विषय में एक डॉक्युमेंट्री बनाना है. उसके पास धन की मात्रा कम होने के कारण वह यह चाहती है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ छात्र उसकी इस फिल्म में अभिनय करें. यहाँ वह मिलती है डीजे से जो दिल्ली विश्वविद्यालय से अपनी पढ़ाई पांच साल पूर्व पूरी कर चुका है और वह सोचता है कि बाहर की दुनिया में उसके लिये कुछ नहीं रखा है. डीजे के दोस्त है करण, असलम और सुखी. करण राजनाथ सिंघानिया नाम के एक उद्योगपति का बेटा है जिसकी अपने पिता से बिल्कुल भी नहीं पटती. असलम एक मध्यम वर्गीय मुस्लिम परिवार से है. जामा मस्जिद के निकट जो गलियां है वहाँ उसका घर है. सुखी इन सब में सबसे छोटा व अपने सभी मित्रों का प्रिय है. इन सभी दोस्तों से अलग है लक्ष्मण पांडेय जो हिंदूवादी सोच का है तथा जिसे राजनीति पर बहुत विश्वास है और उसकी यह सोच है कि राजनीति से ही देश और समाज में सुधार लाया जा सकता है. लक्ष्मण की डीजे व उसके मित्रों से नहीं बनती है, जिस कारण उनमें अक्सर झगड़ा हो जाता है. डीजे और उसके साथियों की एक और मित्र है सोनिया जो कि इस समूह में इकलौती लड़की है. सोनिया की अजय, जो कि एक फाइटर पाइलट है व भारतीय वायु सेना में मिग लड़ाकू विमान उड़ाता है, से शादी होने वाली है. ये सभी युवा अपनी जिंदगी को मौज- मस्ती से बिता रहे हैं. इनके लिए देशभक्ति मात्र इतिहास की पुस्तकों में वर्णित कहानियों के समान है. अपनी फिल्म के द्वारा सू दुनिया को भारतीय क्रांतिकारियों के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपने बलिदान द्वारा दिए गए योगदान को प्रदर्शित करना चाहती है. कहानी में मोड़ तब आता है जब सोनिया के मंगेतर अजय का विमान गिर जाता है और उस हादसे में उसकी मौत हो जाती है. सरकार उस हादसे के लिये अजय को ही जिम्मेदार ठहराती है. सोनिया और उसके मित्र इस बात को नहीं मानते. उन्हें पूरा विश्वास है कि अजय की कोई गलती नहीं होगी बल्कि उसने कई और लोगों की जान बचाने के उद्देश्य से विमान को शहर में नहीं गिरने दिया और अपनी तरफ से सच्चाई का पता लगाने का प्रयास करते हैं. फिल्म के अंत में परिवर्तन आता है जब सच्चाई को सामने लाने के लिये ये लोग भगत सिंह व राजगुरु जैसे क्रांतिकारियों के रास्ते की ओर बढ़ जाते हैं. इस फिल्म का मुख्य भाव जागृति है. यह फिल्म अपनी मान्यताओं के विषय में नए तरीके से फिर से सोचने व उठ खड़े होने के विषय में है और यह संकेत देती है कि क्रांति की जरूरत शायद आज भी उतनी ही है, जितनी कि पहले थी. फिल्म का उपशीर्षक है अ जनरेशन अवेकन्स. इस फिल्म के प्रदर्शन होने के बाद से भारतीय युवाओं ने कई मोर्चों पर सार्थक प्रदर्शन किए. रंग दे बसंती की तरह इंडिया गेट पर मोमबती जलाकर जनता ने प्रियदर्शनी मट्टू और जेसिका लाल के केसों में अदालत के खिलाफ मोर्चा निकाला और हमारे आजाद भारत के इतिहास में शायद पहली बार इस प्रकार के शांतिप्रिय जुलूस निकाल कर उच्च न्यायालय व सरकार को इन मुकदमो को दुबारा खोलने के लिये मजबूर भी कर दिया. अभी बीते दिनों दिल्ली में हुए दामिनी रेप कांड के पश्चात विजय चौक पर एकत्र युवाओं की भीड़ को देखकर ऐसा प्रतीत हुआ, कि जैसे देश में क्रांति का शुभारंभ होनेवाला है. इस फिल्म व इसके संगीत को भी काफी सराहा गया.

   चेतन आनंद की हकीक़त, ख्वाजा अहमद अब्बास द्वारा लिखित, निर्मित व निर्देशित सात हिन्दुस्तानी, मेहुल कुमार के निर्देशन व राजकुमार एवं नाना पाटेकर के अभिनय से सजी-धजी तिरंगा, जॉन मैथ्यू के निर्देशन व नसीरुद्दीन शाह, आमिर खान तथा सोनाली बेंद्रे अभिनीत सरफ़रोश, राजकुमार संतोषी के निर्देशन और अनिल कपूर, माधुरी दीक्षित, डैनी व ओम पुरी के अभिनय की शक्ति से भरी हुई पुकार, सनी देओल, अमीषा पटेल व अमरीश पुरी के सधे हुए अभिनय एवं अनिल शर्मा के सशक्त निर्देशन में बनी ग़दर और क्रिकेट खेल के माध्यम से देशभक्ति की नई परिभाषा लिखती आशुतोष गोवारिकर द्वारा निर्देशित व आमिर खान और ग्रेसी सिंह द्वारा अभिनीत लगान इत्यादि फिल्मों के माध्यम समय-समय पर हिन्दी सिनेमा ने सिनेप्रेमियों के हृदय में देशभक्ति का अंकुर रोपा. अंततः हम कह सकते हैं जिस प्रकार शहीदों ने कुर्बानी देकर अपने देश की सेवा की एवं देश की सीमा पर व भीतर सेना व पुलिस के जवान अपने देश की तन और मन से सेवा करते हैं, उसी प्रकार कुछ फिल्मकारों ने भी समय-समय पर देश प्रेम की भावना को अपनाकर ऐसे सिनेमा का निर्माण किया, जिससे देशवासियों में मृत्यु की ओर अग्रसर देश के लिये मर-मिटने की भावना को पुनर्जन्म मिला. आजकल के धनलोलुप फिल्मकारों को देखते हुए, जो धन कमाने के लिये सिनेमा के माध्यम से अश्लीलता व फूहड़ता जनता को परोस रहे हैं, देशभक्ति पूर्ण सिनेमा निर्मित करनेवाले फ़िल्मकार साधुवाद के पात्र हैं. युवा गीतकार सुमित प्रताप सिंह के शब्दों में कहें तो, “उनका जीना क्या जीना/ जो खुद ही जीते - मरते हैं/ जो मिटते देश की खातिर/ वो मरके भी न मरते हैं”. अपने सिनेमा के माध्यम से देश की खातिर जीने वाले इन फिल्मकारों को हम देशवासियों की ओर से हार्दिक अभिनन्दन.

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