शोभना सम्मान - २०१३ समारोह

रविवार, 5 मई 2013

सिनेमा जगत की दृष्टि में मज़दूर वर्ग

भारतीय समाज के विकास में मज़दूर की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. बात चाहें कृषि की हो या फिर अन्य कार्य की मज़दूर के परिश्रम के बिना हर कार्य असंभव प्रतीत होता है. अथक परिश्रम के बावजूद भी मज़दूर निरंतर शोषण की चक्की में पिसता रहा. भारतीय समाज निरंतर विकास की ओर अग्रसर है, किंतु अभी भी मज़दूर वर्ग की स्थिति लगभग शोचनीय ही है. प्रेमचंद जैसे कई साहित्यकारों ने भी मज़दूरों की दयनीय स्थिति व शोषण का अपनी कलम से बखूबी मार्मिक चित्रण किया, तो भला हिन्दी सिनेमा इससे कैसे अछूता रहता. भारतीय फिल्मों में भी मज़दूरों की दयनीय स्थिति को दिखाया गया, ज़मींदारों द्वारा कैसे उनका शोषण किया जाता है व गरीब कृषकों की  ज़मीनों को चालाकी से कैसे ज़मींदार अपने अधीन कर लेते है. गरीब कृषक मज़दूरों के संघर्ष व आशा- निराशा के दौर को फिल्मों में बखूबी प्रदर्शित किया गया.
इस कड़ी में सन्  1937 में ‘किसान कन्या’ नामक एक हिन्दी फीचर फिल्म प्रदर्शित हुई, जो कि  मोती बी. गिडवानी द्वारा निर्देशित है. यह भारत की पहली स्वदेश निर्मित रंगीन फिल्म है. इस फिल्म में अभिनय किया है पद्मादेवी, जिल्लो, गुलाम मोहम्मद, निसार, गनी  व सैयद अहमद इत्यादि ने. यह फिल्म सआदत हसन मंटो के उपन्यास पर आधारित है, जो कि गरीब किसानों की दुर्दशा पर केंद्रित है. राम गरीब किसान है, जिसका किरदार निभाया है निसार ने,  जो अपने ज़मींदार से बुरी तरह शोषित किया जाता है. अचानक उस ज़मींदार की हत्या हो जाती है और राम जनता की नजर में संदिग्ध हो जाता है.
सन् 1953 में बंगाली फिल्म निर्देशक बिमल रॉय द्वारा निर्देशित ‘दो बीघा ज़मीन’ फिल्म आई. इस फिल्म में मुख्य किरदार शम्भु की भूमिका को निभाया बलराज साहनी व उनकी पत्नी पारो का किरदार अदा किया निरूपा रॉय ने. दो बीघा ज़मीन कहानी में किसानों की दुर्दशा को बखूबी प्रदर्शित किया गया है. इस फिल्म को हिन्दी की महत्वपूर्ण फिल्मों में गिना जाता है. यह फिल्म इटली के नव यथार्थवादी सिनेमा से प्रेरित थी. दो बीघा ज़मीन की कहानी में एक गरीब किसान शम्भु की कहानी को दिखाया गया है. फिल्म की कहानी के अंतर्गत गाँव में भयानक अकाल पड़ने के पश्चात बारिश होती है. जिस कारण सभी प्रसन्न होते है. गाँव का ज़मींदार शहर के ठेकेदार से गाँव में ज़मीन बेचने के लिए सौदेबाजी कर लेता है. वह शम्भु से भी उसकी दो बीघा ज़मीन बेचने के लिए कहता है. शम्भु ज़मींदार से अनेक बार पैसा ऋण के रूप में ले चुका था, लेकिन वह उस पैसे को वापिस नहीं दे सका. ज़मींदार उसे ऋण के बदले में अपनी ज़मीन देने के लिए कहता है, परंतु वह अपनी ज़मीन देने से मना कर देता है, क्योंकि वही ज़मीन उसकी आय का साधन थी. ज़मींदार शम्भु से उधार लिया हुआ रुपया चुकाने के लिए कहता है. शम्भु अपने घर से बड़ी कठिनाई से धन की व्यवस्था करता है. जब वह ज़मींदार के पास ऋण की रकम लेकर पहुँचता है, तो वह आश्चर्यचकित रह जाता है, क्योंकि ऋण की राशि उसके द्वारा ले जाए धन से अधिक थी. वह लेखाकार से हुई भूल से निपटने के लिए अदालत की सहायता लेता है, लेकिन शम्भु मुकदमा हार जाता है. अदालत निर्णय देती है कि शम्भु निश्चित की गई अवधि के अंतर्गत यदि अपनी ऋण की राशि नही चुका पाता है, तो उसकी ज़मीन की नीलामी कर दी जाएगी. शंभु पैसा वापिस करने के उद्देश्य से कलकत्ता जाता है और वहाँ रिक्शा चालक का कार्य करने लग जाता है तथा उसका बेटा मोची बन जाता है. एक रोज ऋण चुकाने का दिन करीब होने के कारण शम्भु तेजी से रिक्शा खींचता है, ताकि ज्यादा पैसा कमा सके, किंतु दुर्भाग्यवश दुर्घटना का शिकार हो जाता है. अपने पिता की यह स्थिति देखकर शम्भु का बेटा चोरी करना आरंभ कर देता है. जब शम्भु को इस विषय में पता चलता है तो वह बहुत आहत होता है. शम्भु की पत्नी पारो को अपने पति व बेटे के बारे में चिंता होती है, तो वह उन दोनों को खोजने के उद्देश्य से शहर आ जाती है. जहाँ वह  कार से दुर्घटना का शिकार हो जाती है. शम्भु अपना सारा जमा किया हुआ रुपया अपनी पत्नी के इलाज में खर्च कर देता है वहीं दूसरी ओर अदालत द्वारा तय की गई अवधि के अंतर्गत ऋण न चुकाएं जाने के कारण शम्भु की ज़मीन की नीलामी हो जाती है और ज़मींदार उस ज़मीन को प्राप्त कर लेता है. अब उस ज़मीन पर कारखाने का कार्य आरंभ हो जाता है. जब शम्भु व उसका परिवार अपनी ज़मीन देखने के लिए गाँव आता है तो वहाँ कारखाने को देखकर अत्यंत दुखी हो जाता है और मुट्ठीभर  गंदगी कारखाने पर फेंकता है. वहाँ कारखाने के सुरक्षाकर्मी उसे बाहर निकाल देते है. बिमल रॉय की इस फिल्म में गरीब कृषकों की शहरों की तरफ पलायन की समस्या को दिखाया गया है. इस फिल्म ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनकी पहचान को स्थापित किया. यह फिल्म अंतर्राष्ट्रीय कांस फिल्म महोत्सव में पुरस्कार जीतने वाली प्रथम भारतीय फिल्म बनी. कार्लोवी वैरी फिल्म समारोह में सामाजिक प्रगति के लिए पुरस्कार दिया गया. 1953 में फिल्म फेयर अवार्ड की शुरुआत की गई थी. बिमल रॉय को सर्वश्रेष्ठ निर्देशन का व दो बीघा ज़मीन को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का फिल्म फेयर अवार्ड भी प्राप्त हुआ.
सन् 1957 में वी. शांताराम ने एक कालजयी फिल्म दो आँखें बारह हाथ का निर्माण किया. दो आँखें बारह हाथ गांधी जी के ‘ह्रदय परिवर्तन’ के दर्शन से प्रेरित होकर छ: कैदियों के सुधार की कहानी है. इस फिल्म में युवा जेलर की मुख्य भूमिका को स्वयं वी. शांताराम ने ही निभाया और फिल्म में अभिनेत्री है संध्या.
कहानी एक युवा, प्रगतिशील और सुधारवादी विचारधारा वाले जेलर आदिनाथ की है, जो कत्ल की सजा भुगत रहे छ: कैदियों को सुधारने की अनुमति प्राप्त कर एक पुराने जर्जर फार्म - हाउस में ले जाता है बस इसी प्रकार प्रारंभ हो जाता है उन्हें सुधारने का कार्य. इस फिल्म में नैतिकता का संदेश प्रस्तुत किया गया है. भारतीय समाज में नैतिकता का सदैव ही महत्वपूर्ण दर्जा रहा है. नैतिकता ही हमें गलत कार्यों को करने से रोकती है. मनुष्य यदि कोई गलत कार्य करता है तो अपराध बोध की भावना से दब जाता है. यही नैतिकता हमें गलत कार्य की तरफ कदम बढ़ाने से रोकती है. फिल्म में जेलर आदिनाथ इसी नैतिकता के बल पर खूंखार कैदियों को सुधारता है व उनके अंदर नैतिकता की भावना को उजागर करता है. यही नैतिकता उन्हें फरार होने से रोकती है. इसी नैतिकता के कारण वे अत्यधिक परिश्रम करके शानदार फसल को प्राप्त करते है. फिल्म दो आँखें बारह हाथ यह सिद्ध करती है कि चाहे कैदी हो या फिर कोई अन्य व्यक्ति सभी के अंदर एक कोमल ह्रदय है और उसमें विभिन्न प्रकार की भावनाओं का वास होता है. इस फिल्म का भरत व्यास द्वारा लिखा गया गीत है
“ऐ मालिक तेरे बंदे हम, ऐसे हो हमारे करम, नेकी पर चले.....
आज तक लोगों का पसंदीदा गीत है और अभी तक कई विद्यालयों में प्रार्थना के रूप में गाया जाता है और सभी को सत्य के मार्ग का अनुशरण करने की प्रेरणा देता है. इस फिल्म ने कई पुरस्कार प्राप्त किए सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए राष्ट्रपति के स्वर्ण पदक से इसे नवाजा गया, सर्वश्रेष्ठ विदेशी फिल्म के लिए सैमुअल गोल्डविन पुरस्कार इसे प्राप्त हुआ और 1958 में चार्ली चैपलिन के नेतृत्व वाली जूरी के अंतर्गत इसे ‘बैस्ट फिल्म ऑफ द ईयर’ का सम्मान दिया गया.
सन् 1957 में बी. आर. चोपड़ा द्वारा निर्देशित फिल्म नया दौर फिल्म आई. यदि इस फिल्म को बी. आर. चोपड़ा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म माना जाए, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. इसे उस समय की एक क्रांतिकारी फिल्म का दर्जा दिया जाता है, जैसा कि इसके नाम नया दौर  से ही प्रदर्शित होता है. मनुष्य बनाम मशीन जैसे मुख्य मुद्दे को बहुत ही संवेदनशील तरीके से दिखाया गया है. फिल्म में मुख्य भूमिका है शंकर की जिसे निभाया है दिलीप कुमार ने और फिल्म में अभिनेत्री है वैजयंती माला.
इस फिल्म के अंतर्गत मनुष्य और मशीन के मध्य लड़ाई को दिखाया गया है. जिसमें जीत आखिर मनुष्य की ही होती है. शंकर एक तांगे वाला है जो एक व्यापारी को चुनौती देता है. यह व्यापारी गरीब तांगे वालों को नजरअंदाज कर तांगों के स्थान पर सड़कों पर बसों की स्वीकार्यता का पक्षधर है. यह कहानी शंकर और कृष्णा नाम के दो मित्रों की कहानी है. जो काफी गहरे मित्र है लेकिन जब उन दोनों के मध्य एक लड़की रजनी आ जाती है तो दोनों की दोस्ती में परिवर्तन आ जाता है. गाँव के जमींदार के बेटे के गाँव में आरा मशीन व लॉरी लाने के पश्चात तो उनकी दोस्ती का कोई अर्थ ही नहीं रहता और वे दोनों एक दूसरे के दुश्मन हो जाते है. आजादी के पश्चात् मनुष्य और मशीन की लड़ाई के बीच मित्रता, प्रेम, त्याग व आजादी के पश्चात आम आदमी के होने की गाथा एक नई सिनेमा की भाषा की प्रतीक थी. गाँव के सादगीपूर्ण माहौल को फिल्म में सुंदर प्रकार से प्रस्तुत किया गया है. शोषण करने वाले जमींदार प्रत्येक ग्रामीण परिवेश में सदैव ही मौजूद रहते हैं. सामाजिक समस्या पर केंद्रित इस फिल्म ने अपने समय में काफी सफलता बटोरी और इसका कर्णप्रिय संगीत भी इसकी महत्वता को बड़ा देता है. इस फिल्म की लोकप्रियता का अनुमान तो इसी से लगाया जा सकता है कि आज भी इस फिल्म के संगीत को बड़े चाव से सुना जाता है. बी. आर. चोपड़ा एक ऐसे बेहतरीन निर्देशक थे, जो फ़िल्मी क्षेत्र में नए - नए प्रयोग करने में विश्वास रखते थे और सामाजिक समस्याओं पर केंद्रित फिल्मों का निर्माण करते थे. वहीं दिलीप कुमार और वैजयंती माला जैसे कलाकारों के माध्यम से फिल्म और भी ज्यादा उम्दा बन पड़ती है.
सन् 1973 में ऋषिकेश मुखर्जी द्वारा निर्देशित फिल्म नमक हराम आई. ऋषिकेश मुखर्जी का भारतीय सिनेमा जगत के अंतर्गत महत्वपूर्ण योगदान रहा है. उनकी फिल्मों में वास्तविक हिन्दुस्तान की झलक को देखा जा सकता है. नमक हराम फिल्म में मुख्य भूमिका निभाई है राजेश खन्ना ने उनके किरदार का नाम है सोमनाथ जो गरीबों की बस्ती में अपनी माँ व कुँवारी बहन के साथ रहता है. सोमनाथ एक उद्योगपति विक्रम का दोस्त है. विक्रम का किरदार निभाया है अमिताभ बच्चन ने. विक्रम के पिता को एक दिन हार्ट अटैक पड़ता है तो डॉक्टर द्वारा उन्हें आराम करने की सलाह दी जाती है. इस कारण से विक्रम को अपने पिताजी के कारोबार को स्वयं ही संभालना पड़ता है. इस दौरान उसका सामना उसकी कंपनी के लीडर बिपिनलाल पांडे से  होता है. जिसके अंतर्गत कंपनी में हड़ताल हो जाती है. विक्रम के पिता जी उसे बिपिनलाल से माफी मांगने के लिए कहते है. विक्रम अपने पिता की बात मान उससे माफी माँग लेता है, जिस कारण कंपनी के हालात सुधर भी जाते है. विक्रम मन ही मन अपमान की अग्नि में झुलसता है और सोमनाथ के साथ बिपिनलाल को सबक सिखाने का निर्णय लेता है. सोमनाथ विक्रम की कंपनी में एक मज़दूर के पद पर कार्यरत है और अपने सहकर्मचारियों के सहयोग से नया यूनियन लीडर नियुक्त होता है. दामोदर नामक व्यक्ति इन दोनों की दोस्ती को खत्म करने के लिए विक्रम को सोमनाथ के विरुद्ध उकसाता है. दोनों मित्रों में इस हद तक शत्रुता हो जाती है, कि दोनों एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाते है. अंत में दोनों के बीच की सारी गलतफहमियां दूर हो जाती हैं और दोनों दोस्त दोबारा मिल जाते हैं. एक बेहतरीन कहानी लिए हुए यह समाजवादी विचारधारा से प्रेरित फिल्म है. फिल्म में उच्चतम व निम्नतम वर्ग के जीवन को बड़ी ही सहजता से दिखाया गया है. सन् 1974 के फिल्म फेयर पुरस्कारों में इस फिल्म को श्रेष्ठ संवाद लेखन के लिए गुलजार व सहायक अभिनेता के लिए अमिताभ बच्चन को पुरस्कार प्राप्त हुआ था.
सन् 1975 में यश चोपड़ा द्वारा  निर्देशित हिन्दी फिल्म  दीवार आई. इस फिल्म में अमिताभ बच्चन, शशि कपूर, निरुपा रॉय व सत्येन्द्र कपूर आदि मुख्य कलाकार थे. इस फिल्म को सफलतम  फिल्मों की श्रेणी के अंतर्गत माना जाता है. इस फिल्म के द्वारा अमिताभ बच्चन ने अभिनय के क्षेत्र में उच्च स्तर को प्राप्त कर लिया था. यह माना  जाता है, कि फिल्म की कहानी अंडरवर्ल्ड डॉन हाजी मस्तान के जीवन पर आधारित है और अमिताभ बच्चन ने यही किरदार फिल्म में निभाया है| फिल्म की  कहानी  दो भाइयों के जीवन पर आधारित है  जो बचपन मे अपने   और अपने परिवार पर अत्याचार को झेलकर जिंदगी में दो अलग अलग रास्ते चुनते हैं, जो दोनो के बीच मे एक दीवार खड़ी कर देते है|
आनंद वर्मा  मज़दूर संघ के नेता है और मज़दूरों के अधिकारों  के लिए फैक्ट्री मालिकों  से लड़ाई करते है, लेकिन फैक्ट्री मालिक उसके परिवार को जान से मारने की धमकी देते है, जिस कारण  आनंद भयभीत हो उनकी बात मान लेता है. मज़दूर इससे क्रोधित हो आनंद पर जानलेवा हमला कर देते है. आनंद घर छोड़कर भाग जाता है और मज़दूरों से परेशान  होकर आनंद की बीवी सुमित्रा अपने बच्चों, विजय और रवि के साथ बंबई चली आती है. इससे पहले ही मज़दूर विजय के हाथ पर "मेरा बाप चोर है" गुदवा देते है. अपने बच्चों को पालने के लिए सुमित्रा को मज़दूरी करनी पड़ती है. विजय भी पढ़ाई छोड़कर मज़दूरी आरंभ कर देता है ताकि उसका भाई रवि पढ़ सके. बड़े होकर विजय एक फैक्ट्री मे मज़दूर बन जाता है और रवि एक पुलिस अफ़सर.  विजय को ऐसा महसूस होता  है, कि  दुनिया उसी की सुनती है जिसके पास रुपया  है और सच्चाई  के मार्ग का अनुशरण  करने पर नाकामी के सिवा कुछ हासिल नहीं किया जा सकता. इसके विपरीत  रवि सत्य और कानून में पूर्ण रूप से विश्वास करता है, परन्तु उसे क़ानून और भाई मे से सिर्फ  एक को चुनना है. रूपये कमाने की चाह  में विजय सोना तस्करी करने लगता है और फिर आरंभ होता  है विजय और रवि में संघर्ष. इस फिल्म के डायलॉग, संगीत  और कहानी काफी पसंद की गई. दीवार फिल्म में अमिताभ बच्चन का एक डायलॉग है, “मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता”. इस डायलॉग सेएक मामूली मजदूर से तस्कर बने परिश्रमी मानव की समाज के प्रति क्रोध की भावना को बखूबी दर्शाया गया है.
 इस फिल्म  ने वर्ष 1976 में कई फिल्मफेयर पुरस्कार प्राप्त किए जैसे  सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक, सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता, सर्वश्रेष्ठ कथा, सर्वश्रेष्ठ पटकथा, सर्वश्रेष्ठ संवाद और सर्वश्रेष्ठ ध्वनिमुद्रण आदि.

सन् 1979 में यश चोपड़ा द्वारा निर्देशित “काला पत्थर” हिंदी फिल्म प्रदर्शित हुई. यह कहानी धनबाद में 1975 के चासनाला की खान दुर्घटना से प्रेरित  थी. इस दुर्घटना में सरकारी आंकड़ों के अनुसार अनुसार 375 लोग मौत के शिकार हुए थे. फिल्म में  मुख्य भूमिका निभाई है  अमिताभ बच्चन, शशि कपूर, राखी, शत्रुघ्न सिन्हा, प्रेम चोपड़ानीतू सिंह, परवीन बॉबी, पूनम ढिल्लों ने. फिल्म की कहानी में विजय पाल सिंह की भूमिका को निभाया है अमिताभ बच्चन ने, जो एक कलंकित समुंद्री सेना का कप्तान है जो 300 समुंद्री यात्रियों की ज़िन्दगी को खतरे में डालकर जहाज छोड़कर भाग गई थी.

अपने किये पर विजय पाल हमेशा शर्मिंदा रहता है और एक कोयले की खान में काम करना शुरू कर देता है परन्तु वह अपना अतीत नहीं भुला पाता. सेठ धनराज एक गैर जिम्मेदार इंसान है जो खान में काम करने वालों पर ज़ुल्म करता है| विजय का अतीत एक बार फिर उसके सामने आ जाता है जब खान में बाढ़ आ जाती है और श्रमिकों को विनाशकारी स्थिति का सामना करना पड़ता है. फिल्म के अंत में संघर्ष होता है श्रमिकों को बचाने व विजय की कायरता के बीच.

सन 1983 सिनेमा जगत में मज़दूर फिल्म का पदार्पण हुआ, जिसके निर्माता बी.आर.चोपड़ा थे व निर्देशन की बागडोर संभाली थी उनके बेटे रवि चोपड़ा ने.  इस फिल्म को अभिनय से सजाया था दिलीप कुमार, राज बब्बर, नंदा, रति अग्निहोत्री, मदन पुरी व जॉनी वाकर जैसे अभिनय के धुरंधरों ने. फिल्म की कहानी कुछ यूँ थी श्रीमान सिन्हा एक कपड़े की मिल चलाते हैं और इससे मिलने वाले लाभ को भत्ते व बोनस के रूप में अपने मज़दूरों को नियमित रूप से बाँटते रहते हैं. उनके गुज़र जाने के बाद मिल की कमान उनका बेटा हीरालाल संभालता है, जिसका उद्देश्य है मिल द्वारा अपने लिए अधिक से अधिक लाभ कमाना. इस कारण हीरालाल और उसकी मिल के मज़दूरों में संघर्ष आरंभ हो जाता है, जिनका नेतृत्व करता है दीनानाथ सक्सेना. जब दीनानाथ मिल की आम मीटिंग में हीरालाल का विरोध करता है, तो हीरालाल इस जिद पर अड़ जाता है, कि दीनानाथ लिखित माफीनामा दे. दीनानाथ उसकी जिद पूरी करने के बजाय अपना इस्तीफ़ा सौंप देता है और एक संघर्षरत अभियंता अशोक माथुर की सहायता से एक अपनी मिल खोलने का निश्चय करता है.   अंततः वे सफल होते हैं, उनका उत्पादन बढ़ जाता है, वे मिल में  और अधिक मज़दूरों की नियुक्ति करते हैं और शीघ्र ही प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं.

इस प्रकार हम कह सकते हैं, कि मज़दूरों की बेबसी और मिल मालिकों / साहूकारों  से उनके संघर्ष को हिन्दी फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों का विषय बनाया और अपने-अपने अंदाज में एक अलग कहानी का रूप देकर उन्हें फिल्मी परदे पर उकेरा. इन फिल्मों के माध्यम से शोषित मज़दूर वर्ग की समस्या की ओर समाज का ध्यान आकर्षित किया गया तथा यह प्रयास किया गया कि इन फिल्मों से सामाजिक समरसता का संदेश दिया जा सके. ऐसी सामाजिक समस्या पर फिल्म बनाकर समाज को आइना दिखानेवाले फिल्मकार वास्तव में साधुवाद के पात्र हैं.
चित्र गूगल से साभार

मंगलवार, 19 मार्च 2013

कविता: मुझे जन्म दो माँ




माँ सुन रही हो
तुम्हारी कोख से
मैं तुम्हारी बेटी बोल रही हूँ
मैं जन्म लेकर
इस संसार में आना चाहती हूँ
और पिता का मान
तुम्हारा अभिमान बनना चाहती हूँ
तुम्हारे आँगन में
अपनी नन्हीं पायलों का
गुंजन करना चाहती हूँ
किन्तु डरती हूँ कि कहीं
जन्म लेने से पहले ही
कोख में मार दी जाऊँ
और यदि जन्म लूँ तो कहीं
तुम्हारे लिए अमावस का चाँद बन
दुर्भाग्य ले आऊँ
या फिर पिता के लिए
चिंतारुपी चिता बन जाऊँ
किन्तु माँ तुम ही सोचो कि
यदि मेरी भांति कन्याओं को
कोख में यूं ही
मार दिया जाता रहा तो
बेटी, बहन, पत्नी माँ जैसे पवित्र रिश्ते
इस धरा पर रह पायेंगे क्या
और यदि नारी ही धरा से
विलुप्त हो गई तो
फिर मनु का वंश कैसे बचेगा
तो माँ अब निर्णय लो
और करो साहस
मुझे जन्म देने का
क्योंकि प्रकृति को नष्ट होने से
तुम अर्थात  नारी  ही बचा सकती है
तो मेरी पुकार सुनो और
मुझे जन्म दो माँ...
चित्र गूगल से साभार 

शनिवार, 12 जनवरी 2013

कलम घिस्सी विचारशाला

  जीवन में यह महत्वपूर्ण नहीं होता कि परिस्थितियाँ हमारे अनुकूल है या फिर प्रतिकूल, हाँ अगर हम किसी भी कार्य को पवित्र भावना से करते है तो एक अदृश्य शक्ति (ईश्वरीय शक्ति) हमारे साथ हमेशा रहती है.


चित्र गूगल से साभार 

बुधवार, 2 जनवरी 2013

रण (कहानी)

( मेरी यह पहली कहानी समर्पित है मेरी आदरणीया अध्यापिका को जिन्होंने विकलांग होते हुए भी जीवन का रण जीत लिया.)


    ल्होत्रा जी की पत्नी गर्भ से थी. उनके दो बच्चे एक बेटा रवि और एक बेटी रूपा थे. अब अपनी तीसरी संतान के आगमन को लेकर दोनों ही बहुत उत्साहित थे. एक दिन उनके घर में एक प्यारी सी बच्ची का जन्म हुआ. बच्ची देखने में बहुत सुंदर थी, लेकिन बेचारी हाथ और पैरों से अपाहिज थी. उसके माता-पिता ने जब यह देखा, तो बहुत व्यथित हो गये. आखिरकार उन दोनों ने इसे ईश्वर की मर्जी मान अपने-अपने मन को किसी तरह समझा लिया.
कन्या के भोले से मासूम चेहरे को देखकर उसे नाम दिया गया सुमन. माता-पिता के लाड़-प्यार में सुमन का पालन-पोषण होने लगा. सुमन को जहाँ अपने माता-पिता का भरपूर प्यार मिलता, तो वहीं अपने भाई और बहन का दुर्व्यवहार. कई बार तो इस वजह से वह हीन भावना से ग्रस्त हो मानसिक रूप से बहुत परेशान हो जाती थी. जिस उम्र में बच्चों के भीतर  शैतानी और चंचलता भरी होती है उस उम्र में उसके स्वभाव में गंभीरता का वास हो गया. अब सुमन का अधिकांश समय किताबों के साथ ही बीतने लगा था. उसके भीतर पढ़ने-लिखने की लगन भरी हुई थी. वह सदैव अपनी हर कक्षा में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होती थी. स्कूल की टीचर भी उसकी तारीफ़ करते न थकती थी. अपनी मेहनत के बल पर उसने अच्छी शिक्षा प्राप्त कर एक सरकारी स्कूल में शिक्षिका की नौकरी भी पा ली.
समय बीतता गया और एक मनहूस दिन आया और सुमन के सिर से उसके माँ-बाप का साया उठ गया. उसके भाई-बहन का विवाह हो गया और वे दोनों अपने-अपने गृहस्थ जीवन में व्यस्त हो गये. सुमन के लिए उसके भाई-बहन के मन में अभी तक कोई प्रेमभाव की भावना उत्पन्न नहीं हो पाई थी. उसके साथ उनका पहले जैसा व्यवहार जारी था. सुमन को घर में घुटन महसूस होने लगी. अब तो माता-पिता का भी स्नेह नहीं था, जिसके सहारे वह यह सब सहन करती रहती. आखिरकार एक दिन उसने निश्चय किया और उसने हमेशा के लिए अपना घर छोड़ दिया और महिला हॉस्टल में जाकर रहने लगी. सुमन के अंतर्मन पर अपनों द्वारा किए गए बुरे बर्ताव का ऐसा प्रभाव पड़ा, कि उसका व्यवहार बहुत ही रुखा हो गया. जिसे अक्सर स्कूल के बच्चों को मार के रूप में झेलना पड़ता था. स्कूल के बच्चे उसे दूर से देखकर ही डर से सहम जाते थे.
सुमन मानसिक रूप से बहुत दृढ थी. उससे प्रभावित होकर एक दिन उसके सहशिक्षक ने उसके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा. एक पल के लिए तो वह हैरान हो गई. उनके इस प्रस्ताव पर उसके मन में कई दिनों तक उधेड़-बुन रही, कि एक विकलांग महिला और एक शरीर से सामान्य पुरुष का विवाह क्या सफल हो पायेगा? सहशिक्षक के पुनः आग्रह पर आखिर में सुमन ने प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया. एक शुभ दिन आया और उन दोनों का विवाह संपन्न हुआ. सुमन का अपने पति संग जीवन सुखमय बीतने लगा. अब उसके व्यवहार में भी बहुत परिवर्तन आ चुका था. अब वह स्कूल के बच्चों से स्नेह करने लगी थी और स्कूल के बच्चों की चहेती शिक्षक बन चुकी थी. सुमन के चेहरे पर अब निराशा नहीं, बल्कि मुस्कान रहती थी, लेकिन उसके मन-मस्तिष्क में एक शंका सदैव रहती, कि कहीं उसकी होने वाली संतान उसकी भांति अपाहिज पैदा न हो.
आख़िरकार शुभ घड़ी आई और सुमन के घर एक बालिका ने जन्म लिया. बच्ची शारीरिक रूप से हष्ट-पुष्ट थी. आजकल सुमन अपनी बेटी के लालन-पालन में मस्त रहती है. अब वह अपने जीवन से संतुष्ट है और उसे लगता है कि उसने इस जीवन का रण आखिर जीत ही लिया.

*चित्र गूगल से साभार*
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