शोभना सम्मान - २०१३ समारोह

बुधवार, 2 जनवरी 2013

रण (कहानी)

( मेरी यह पहली कहानी समर्पित है मेरी आदरणीया अध्यापिका को जिन्होंने विकलांग होते हुए भी जीवन का रण जीत लिया.)


    ल्होत्रा जी की पत्नी गर्भ से थी. उनके दो बच्चे एक बेटा रवि और एक बेटी रूपा थे. अब अपनी तीसरी संतान के आगमन को लेकर दोनों ही बहुत उत्साहित थे. एक दिन उनके घर में एक प्यारी सी बच्ची का जन्म हुआ. बच्ची देखने में बहुत सुंदर थी, लेकिन बेचारी हाथ और पैरों से अपाहिज थी. उसके माता-पिता ने जब यह देखा, तो बहुत व्यथित हो गये. आखिरकार उन दोनों ने इसे ईश्वर की मर्जी मान अपने-अपने मन को किसी तरह समझा लिया.
कन्या के भोले से मासूम चेहरे को देखकर उसे नाम दिया गया सुमन. माता-पिता के लाड़-प्यार में सुमन का पालन-पोषण होने लगा. सुमन को जहाँ अपने माता-पिता का भरपूर प्यार मिलता, तो वहीं अपने भाई और बहन का दुर्व्यवहार. कई बार तो इस वजह से वह हीन भावना से ग्रस्त हो मानसिक रूप से बहुत परेशान हो जाती थी. जिस उम्र में बच्चों के भीतर  शैतानी और चंचलता भरी होती है उस उम्र में उसके स्वभाव में गंभीरता का वास हो गया. अब सुमन का अधिकांश समय किताबों के साथ ही बीतने लगा था. उसके भीतर पढ़ने-लिखने की लगन भरी हुई थी. वह सदैव अपनी हर कक्षा में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होती थी. स्कूल की टीचर भी उसकी तारीफ़ करते न थकती थी. अपनी मेहनत के बल पर उसने अच्छी शिक्षा प्राप्त कर एक सरकारी स्कूल में शिक्षिका की नौकरी भी पा ली.
समय बीतता गया और एक मनहूस दिन आया और सुमन के सिर से उसके माँ-बाप का साया उठ गया. उसके भाई-बहन का विवाह हो गया और वे दोनों अपने-अपने गृहस्थ जीवन में व्यस्त हो गये. सुमन के लिए उसके भाई-बहन के मन में अभी तक कोई प्रेमभाव की भावना उत्पन्न नहीं हो पाई थी. उसके साथ उनका पहले जैसा व्यवहार जारी था. सुमन को घर में घुटन महसूस होने लगी. अब तो माता-पिता का भी स्नेह नहीं था, जिसके सहारे वह यह सब सहन करती रहती. आखिरकार एक दिन उसने निश्चय किया और उसने हमेशा के लिए अपना घर छोड़ दिया और महिला हॉस्टल में जाकर रहने लगी. सुमन के अंतर्मन पर अपनों द्वारा किए गए बुरे बर्ताव का ऐसा प्रभाव पड़ा, कि उसका व्यवहार बहुत ही रुखा हो गया. जिसे अक्सर स्कूल के बच्चों को मार के रूप में झेलना पड़ता था. स्कूल के बच्चे उसे दूर से देखकर ही डर से सहम जाते थे.
सुमन मानसिक रूप से बहुत दृढ थी. उससे प्रभावित होकर एक दिन उसके सहशिक्षक ने उसके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा. एक पल के लिए तो वह हैरान हो गई. उनके इस प्रस्ताव पर उसके मन में कई दिनों तक उधेड़-बुन रही, कि एक विकलांग महिला और एक शरीर से सामान्य पुरुष का विवाह क्या सफल हो पायेगा? सहशिक्षक के पुनः आग्रह पर आखिर में सुमन ने प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया. एक शुभ दिन आया और उन दोनों का विवाह संपन्न हुआ. सुमन का अपने पति संग जीवन सुखमय बीतने लगा. अब उसके व्यवहार में भी बहुत परिवर्तन आ चुका था. अब वह स्कूल के बच्चों से स्नेह करने लगी थी और स्कूल के बच्चों की चहेती शिक्षक बन चुकी थी. सुमन के चेहरे पर अब निराशा नहीं, बल्कि मुस्कान रहती थी, लेकिन उसके मन-मस्तिष्क में एक शंका सदैव रहती, कि कहीं उसकी होने वाली संतान उसकी भांति अपाहिज पैदा न हो.
आख़िरकार शुभ घड़ी आई और सुमन के घर एक बालिका ने जन्म लिया. बच्ची शारीरिक रूप से हष्ट-पुष्ट थी. आजकल सुमन अपनी बेटी के लालन-पालन में मस्त रहती है. अब वह अपने जीवन से संतुष्ट है और उसे लगता है कि उसने इस जीवन का रण आखिर जीत ही लिया.

*चित्र गूगल से साभार*

सोमवार, 29 अक्टूबर 2012

लघु कथा: नीयत

चित्र गूगल बाबा से साभार 


   यमराज के दरबार में यमदूतों द्वारा पृथ्वी से उठाए गए जीवों को चित्रगुप्त बारी-बारी से यमराज के सामने हाजिर कर रहे थे. 

जैसे ही राजेश का नंबर आया उसके उदास चेहरे को देख यमराज ने उसके दुःख का कारण पूछा, तो  वह बोला, "मैंने अपने जीवन में इतनी मेहनत की. अच्छी शिक्षा प्राप्त की और रूपए-पैसे की भी मेरे पास कोई कमी नहीं थी. फिर भी मैं अपने जीवन में उतना सफल नहीं हो पाया, जितना कि मेरा दोस्त मानस. कल रात भी जब हम दोनों साथ-साथ यात्रा कर रहे थे, तो कार दुर्घटना में मेरी तो मौत हो गई, लेकिन वह बाल-बाल बच गया."

यमराज मुस्कुराए और बोले, "हे जीव तुम अपनी आँखें बंद करो और स्वयं ही अपने आप से यह पूछो, कि ऐसा क्यों हुआ?

राजेश अपनी आँखें बंद करके मन ही मन सोचता है, "मैं मेहनती था, मानस भी मेहनती था. लगन मेरे भीतर थी, तो उसमें भी थी. हाँ समय-समय पर मैं उसकी राह में कांटे बोता गया और वह बिना कोई शिकायत किए अपनी मंजिल की ओर बढ़ता गया और कामयाबी पाता गया. मैंने उसके साथ बुरा किया, लेकिन उसने हमेशा मुझसे दोस्ती निभाई और मेरे साथ अच्छा व्यवहार ही किया." 

राजेश अपनी आँखें खोलता  है तो यमराज उससे मुस्कुराकर पूछते है, "कहो जीव कोई उत्तर मिला?" 

राजेश उदास होकर कहता है, "हां."

"क्या उत्तर मिला?" यमराज उससे फिर से पूछते हैं.

राजेश अपना सिर झुकाकर जवाब देता है, "असल में मेरी नीयत में ही खोट था."

लघुकथाकार- संगीता सिंह तोमर 

मंगलवार, 11 सितंबर 2012

चोर (लघु कथा)


चित्र गूगल बाबा से साभार
    ड्यूटी अफसर ने होमगार्ड को बुलाया और पूछा, “छज्जूमल हफ्ते भर से डी.ओ. रूम से लगातार पैन गायब होते जा रहे हैं, कहीं तू तो नहीं उठाकर ले जाता है”?
छज्जूमल ने अपनी आँखें नम करते हुए बोला, “साब चाहे जो इल्जाम लगाना पर चोरी का दोषी मत ठहराना”.
ड्यूटी अफसर कड़क आवाज में उससे बोला, “तो फिर पैन के क्या पंख लगे हुए थे, जो उड़कर कहीं और चले गए”?
होमगार्ड ड्यूटी अफसर की बात सुनकर मुस्कराते हुए बोला, “अरे साब मजाक अच्छा कर लेते हैं. एक बात कहूँ. कुछ दिनों से एक महिला टीचर अपने मोबाइल खोने की शिकायत लेकर आ रही हैं.कहीं वो ही तो...”
ड्यूटी अफसर ने छज्जूमल को डांटा, “चुपकर एक टीचर पर चोरी का इल्जाम लगाता है. टीचर को चोर बना दिया, कल मुझे ही चोर बना देगा. अब तेरी जिम्मेवारी है, तुझे कल तक पता लगाना है, कि पैन का चोर आखिर कौन है”?
छज्जूमल ड्यूटी के दौरान पूरे दिन चोर पकड़ने की तरकीब खोजता रहा.
अगले दिन महिला टीचर अपने खोए हुए मोबाइल फोन के बारे में ड्यूटी अफसर से पूछताछ करने फिर आईं और कम्प्लेंट लिखने के बाद ड्यूटी अफसर को देने के पश्चात जब जाने को हुई तो आदतानुसार डी. ओ. रूम में रखे पैन को अपने बैग में डालने लगीं, लेकिन इस बार उन्हें असफलता मिली. उन्होंने देखा, कि पैन एक धागे से बंधा हुआ है. ड्यूटी अफसर और छज्जूमल टीचर को देखकर खड़े-खड़े मुस्कुरा रहे थे. टीचर यह देखकर शरमा गईं और अपने भुलक्कड़ स्वभाव के लिए माफ़ी मांगकर उन्होंने अपने बैग की जाँच की, तो उसमें उन्हें डी.ओ. रूम से भूल से रखे पैन मिल गए. उन्होंने उन सभी पैनों को अपने बैग से निकालकर ड्यूटी अफसर को वापस कर दिए.
ड्यूटी अफसर ने महिला टीचर के जाने के बाद छज्जूमल की पीठ ठोंकते हुए कहा, “शाबाश छज्जूमल तूने आखिर चोर को खोज ही लिया”. 


शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

पुण्य (लघु कथा)

***चित्र गूगल बाबा से साभार*** 

     नेहा सुबह की सैर के लिए घर से निकली, तो उसने रास्ते में देखा की सविता आंटी झुग्गियों के गरीब बच्चों को लड्डू बांट रहीं थीं. नेहा ने उनसे पूछा,"आंटी आज कोई खास बात है, जो आज इन बच्चों को मिठाई खिलाई जा रही है?" सविता आंटी ने मुस्कराते हुए कहा, "अरे बेटी कोई खास बात नहीं है. घर में रखे-रखे इन लड्डुओं में बदबू आनी शुरू हो गई थी. मुझे लगा, कि अगर घर में  बच्चों ने इन्हें खा लिया, तो बीमार पड़ जाएँगे. अब इन झुग्गी-झोपड़ी के बच्चों को तो गन्दा-संदा सब हजम हो जाता है. मैंने सोचा, कि इन लड्डुओं को इन्हें ही बांट दूँ. कम से कम इस बहाने कुछ पुण्य तो मिल जाएगा."

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो




आप सभी ने हिन्दी के प्रसिद्द गज़लकार दुष्यंत कुमार का मशहूर शेर तो सुना ही होगा- 

कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं हो सकता
एक  पत्थर तो  तबियत से  उछालो   यारो II

इसी शेर की दूसरी पंक्ति ( मिसरा -ए- सानी ) “एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो” को अपनी पुस्तक का शीर्षक प्रदानकर  डॉ.रवि शर्मा ‘मधुप’ ने सकारात्मक दृष्टिकोण से परिपूर्ण एक प्रेरणादायी पुस्तक को लेखबद्ध किया है. इस पुस्तक मे कुल 27 लेख संकलित हैं. युवाकाल मानव का स्वर्णिमकाल  होता है. इस काल में किए गए प्रयास हमारे जीवन की दिशा निर्धारित कर देते है. आज समाज में साहित्य की बाढ़ आई हुई है, जिसमे से अच्छे साहित्य को चुनने के लिए असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, क्योंकि अधिकतर साहित्य के नाम पर अश्लीलता परोसते है, जिस कारण युवा वर्ग की दिग्भ्रमित होने की आशंका उत्पन्न हो सकती है. ऐसे में अच्छी पुस्तकों को पढ़ना हमारे व्यक्तित्व विकास के लिए बहुत ही जरूरी है. लेखक ने इस पुस्तक के माध्यम से युवावर्ग का उचित मार्गदर्शन किया है. इस पुस्तक के माध्यम से लेखक ने भ्रमित, निराश युवा वर्ग के अंदर आशावादी सोच के संचार द्वारा उनके संपूर्ण व्यक्तित्व के विकास को चाहा है.
मानव जीवन में प्रत्येक व्यक्ति का सामना आशा व निराशा के क्षणों से होता है. कुछ ही व्यक्ति ऐसे होते है जो विपरीत परिस्थितियों में भी आशावाद का दामन नहीं छोड़ते, अधिकतर व्यक्ति ऐसे समय में अपने घुटने टेक देते है व निराशा के घोर अंधकार में चले जाते है. यदि मानव अंधकार की ओर ही रहता रहेगा तो वह उजाले की तरफ कैसे जा सकता है. लेखक ने स्पष्ट किया है की बाल्यवस्था हमारे जीवन का वह समय होता है, जब हमारे जीवन की नींव बनती है. यदि इस दौरान अच्छी आदतों को विकसित कर लिया जाये तो वे आगे भी सदैव रहती है जैसे समय का महत्व आदि.
किशोरावस्था मानव के जीवन का वह समय होता है जिसमें थोड़ी भी असावधानी अग्रिम भविष्य के लिए खतरा हो सकती है. इस अवस्था में किशोरों में पूर्ण रूप से परिपक्वता नहीं आती है. ऐसे में किशोरों के अभिभावकों व अध्यापकों से प्रेम व सहयोग की आवश्यकता होती हैं और यदि उन्हें यह मिले तो उनका भविष्य उज्जवल हो उठता है.
युवावस्था एक ऐसा नाजुक दौर होता है जहाँ से भविष्य के लिए दो मार्ग निकलते है, एक परिश्रम का तथा दूसरा सरल मार्ग. अधिकतर युवा दूसरा चुनते है जिसका परिणाम होता है असफल, कुंठित व निराशवादी जीवन. जिसके कारण वे हिंसा, नशा व अपराध की ओर रुख कर जाते है.
आज के किशोरों व युवा के सामने अनेक समस्याएं है जैसे परीक्षा, रैगिंग, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, प्रेम व पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव इत्यादि. लेखक ने इनपर विस्तार से चर्चा की है व इनसे निपटने के उपाय भी बताए हैं.
हमारे जीवन में संघर्ष का विशेष महत्व है जो भी अपने पूर्ण सामर्थ्य से संघर्ष करता है उसे सफलता अवश्य मिलती है. लेखक ने वाणी के महत्व पर भी बल दिया है, क्योंकि  मानव की उन्नति में वाणी का महत्वपूर्ण स्थान होता है उसके व्यवहार, विचार, शिष्टाचार को उसकी वाणी के द्वारा ही पहचाना जा सकता है.
आज पूरे विश्व में  33  करोड़ 70 लाख अंग्रेजी भाषियों की तुलना में हिन्दी भाषी 33 करोड़  72 लाख  72 हजार है (स्रोत - राजभाषा भारती, स्वर्ण जयंती अंक) अर्थात चीनी के बाद हिन्दी दूसरे स्थान पर है व अंग्रेजी तीसरे स्थान पर और डॉ. जयंती प्रसाद नौटियाल ने अपने वर्षों के शोध से विश्वस्तर पर भाषा प्रयोक्ताओं के आंकड़े जुटाकर यह सिद्ध कर दिया है, कि यदि हिन्दी  भाषियों की संख्या में उर्दू भाषियों को भी सम्मिलित कर दे तो वे चीनी भाषियों से गिनती में ज्यादा हो जाते है यानि हमारी हिन्दी संसार के पहले स्थान पर है. हिन्दी का शब्द-भंडार अंग्रेजी सहित विश्व की किसी भी भाषा से ज्यादा समृद्ध है, क्योंकि हिन्दी की जननी संस्कृत की एक-एक धातु से सैकड़ों नए शब्दों का निर्माण हो सकता है. हमारी हिन्दी भारत की राजभाषा, राष्ट्रभाषा और संपर्क भाषा तो है  ही अब संसार की भाषा बनने की ओर भी अग्रसर है.
पुस्तक में प्रारंभ से अंत तक विभिन्न - विभिन्न विषयों पर लेख रुचिपूर्ण जान पढ़ते है. लेखक ने ह्रदय को छू लेने वाली भाषा का प्रयोग किया है. लेखन में बीच-बीच में कविताओं की प्रेरक पंक्तियों से लेख और भी सशक्त व जानदार बन पड़े है. यह पुस्तक युवावर्ग के लिए एक अच्छी व मार्गदर्शक सिद्ध हो सकती है. असली लेखक तो वही होता है जो समाज के हित के लिए लिख सके और डॉ. रवि शर्मा ‘मधुप’ जी ने इस पुस्तक के माध्यम से यह कार्य किया है. उन्हें यह पुस्तक लिखने के लिए साधुवाद.

समीक्षाकार- संगीता सिंह तोमर 

पुस्तक का नाम- एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो

पुस्तक के लेखक- डॉ. रवि शर्मा 'मधुप', संपर्क- 09811036140

पुस्तक का मूल्य- 200/- रुपये 

प्रकाशक- गौरव बुक्स 
        के- 4/19, गली नं. 5,
        वैस्ट घौंडा, दिल्ली- 110053

सोमवार, 16 जुलाई 2012

समीक्षा : इस रात की सुबह कब होगी?




       इस रात की सुबह कब होगी? नामक उपन्यास के लेखक सुरेन्द्र 'पीलवान' ने पाठकों के समक्ष एक आश्चर्य से भरी हुई कहानी प्रस्तुत की है. प्रत्येक मनुष्य इस संसार में विचित्र अनुभवों के दौर से कभी न कभी गुजरता ही है. कहानी का मुख्य पात्र अशोक जो कि अपने गुरु व ईश्वर के प्रति गहरी श्रद्धा रखता है. जब उसका विचित्र अनुभवों से सामना होता है तो उसका विश्वास डगमगाने लगता है. अन्य पात्र रजनी जो कि अशोक की पत्नी है कहीं न कहीं मन को प्रभावित करती है. अशोक ईश्वर की कृपा प्राप्त करने के लिए सत्संगों का सहारा लेता है, वहीं रजनी गुरु की भक्ति से ज्यादा कर्म की प्रधानता पर बल देती है, वह भारतीय नारी के आदर्शों को मन में संजोये हुए, हर तरह की मुसीबत में अपने पति का तन-मन से सहयोग करती है. दूसरी ओर उपन्यास की अन्य पात्र चित्रलेखा जोकि अशोक की धर्म की बहन है सत्संग भजन कीर्तन में मग्न रहती है. उसकी भक्ति के नाटक के पीछे उसका व्याभिचारी रूप सहसा आश्चर्य में डाल देता है, कि किस प्रकार कुछ विक्षिप्त मानसिकता के लोग समाज में सीधा बनने के लिए भक्ति का ढोंग करते है.
अशोक का सपना है कि उसका भी अपना एक घर हो जब वह घर बनवाता है तो छोटी-मोटी  हर एक बात का ध्यान रखता है कि उसके घर में कोई भी अशुभ-अमंगल न हो. वह अपने परिवार के साथ वहां रहने लगता है व सारे शुभ कार्य पूजा-पाठ करवाता है, ताकि उसका परिवार इस घर में सुख-चैन का जीवन बिता सके किन्तु फिर भी उसके घर में विपदाओं का पहाड़ टूट पड़ता है. वह और उसका परिवार शैतानी शक्तियों के चंगुल में धीरे-धीरे फंसते जाते है. अशोक के मन-मस्तिष्क पर यह शक्तियाँ अपना अधिकार जमा लेती है. अशोक अपनी समस्या का समाधान पाने के लिए संत-सन्यासियों, तांत्रिकों-ज्योतिषियों, मुल्ला-मौलवियों व सूफियों इत्यादि के पास भटकता है पर हर तरफ से उसे निराशा ही हाथ लगती है. सब ऐसी परिस्थिति में डूबते को सहारा देने की बजाय उससे रूपए ऐंठते है. धीरे-धीरे उसका ईश्वर व अपने सत्संगी गुरु से विश्वास उठ जाता है. अब वह अपनी अन्तरआत्मा को ही अपना सच्चा गुरु, रक्षक व हितैषी मानने लगता है. धीमे-धीमे उसकी आर्थिक स्थिति भी जबाव देने लग जाती है. आखिरकार हारकर उसे अपने परिवार के हित के लिए अपने पुराने मकान में वापस लौटना पड़ता है. 
उपन्यास में शुरू से लेकर आखिर तक लेखक ने रोचकता बनाए रखी है. लेखक ने इस उपन्यास के माध्यम से संत सन्यासियों, तांत्रिकों-ज्योतिषियों, मुल्ला-मौलवियों व सूफियों आदि की पोल खोली है जो लोगों को मूर्ख बनाकर समस्या का समाधान करने का आश्वासन देकर रूपए ऐंठते हैं. साधक जी का यह पहला उपन्यास है और मेरे अनुसार वह  अपने लेखन में काफी सफल रहे है. इस उपन्यास में नीरसता का बिल्कुल अभाव है और रोचकता आरंभ से अंत तक बनी रहती है. किन्तु उपन्यास में एक कमी खटकती है कि उपन्यास का अंत अधूरा सा लगता है. हो सकता है कि लेखक का इस उपन्यास का दूसरा भाग लाने का विचार हो. यदि ऐसा है तो दूसरा भाग पढ़ने की उत्सुकता व प्रतीक्षा रहेगी.  

समीक्षाकार- संगीता सिंह तोमर 

पुस्तक का नाम - इस रात की सुबह कब होगी 
प्रकाशक - पूनम प्रकाशन 
        6- बी, गली नं. 1,
        कौशिक पुरी, पुराना सीलमपुर,
        दिल्ली - 110031
पुस्तक का मूल्य - 225/- रुपये

मंगलवार, 3 जुलाई 2012

सुमित प्रताप सिंह हुए आर्य रत्न से सम्मानित





   श्री निवासपुरी,दिल्ली में दिनाँक- 30.06.2012 को आयोजित एक कार्यक्रम में युवा कवि, लघुकथाकार, व्यंग्यकार व दिल्ली गान के लेखक सुमित प्रताप सिंह को आर्य ट्रस्ट ने आर्य रत्न सम्मान-2012 से सम्मानित किया. इस अवसर पर सुमित प्रताप सिंह ने अपनी व्यंग्य रचनाओं का पाठ किया व दिल्ली गान सुनाकर वहाँ उपस्थित जनसमूह का मन मोह लिया. आर्य ट्रस्ट के चेयरमैन व ट्रस्टी वेद प्रकाश शास्त्री ने सुमित प्रताप सिंह को दिल्ली  की विशेषताएं समेटे हुए दिल्ली गान लिखने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद दिया.उन्होंने कहा कि दिल्ली गान को सुनने के बाद उन्हें यह अहसास होता है कि वह इतने सुंदर शहर में रह रहे है. उन्होंने सुमित प्रताप सिंह को ऐसी ही शानदार रचनायें लिखते रहने के लिए शुभकामनायें दी. इस अवसर पर बी.के.सिंह, गोपी कान्त डे, प्रेम चंद कुकरेजा ,प्रवीन झा, विपिन छाबड़ा, बॉबी कुमार व अन्य लोग उपस्थित थे.
भेदी नज़र, सोमवार, 2 जुलाई, 2012
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