(28 मई 1883 -26 फरवरी 1966)
तुजसांठी मरण ते जनन,तुजवीण जनन ते मरण!
हे मातृभूमि!तेरे लिए मरना ही जीना है और तुझे भूल कर जीना ही मरना है!
जिस प्रकार एक भारतीय नाटक के सभी पात्र-मृत और जीवित भी,एक समय अंत में मिलते हैं,उसी तरह इस संघर्ष नाटक के हम सभी असंख्य पात्र भी कभी इतिहास के रंगमंच पर अवश्य मिलेंगे.तब तक के लिए मित्रो!विदा!विदा!!मेरी लाश कहीं भी गिरे,चाहे अंडमान की अंधेरी कालकोठरी में अथवा गंगा की पवित्र धारा में,वह हमारे संघर्ष को प्रगति ही देगी.युद्ध में लड़ना और गिर पड़ना भी एक प्रकार की विजय है. अत:प्यारे मित्रो! विदा!
-स्वातंत्र्यवीर सावरकर