हे प्रभु
दर-दर भटककर
तुझको कण- कण में
खोजने का करूँ जतन
पर कहाँ मैं तुझको पाऊँ
ये मन समझ न पाए
आस बड़ी है
तुझको पाने की
और एक पल को
हो निराश मैं सोचूँ
क्या कभी मनोरथ ये मेरा
हो पाएगा पूरा
जब मैं तुझको देखूँ साक्षात्
मस्तक पे लगा पाऊँगी
तेरे चरणों की रज
फिर सुनूँ तुम्हारी अमृतवाणी
और कानों को
धन्य करूँ अपने मैं
अचानक मस्तिष्क में गूँजे ध्वनि
जैसे प्रभु कह रहे हों मुझसे
क्यों भटके मन तेरा
मुझको खोजने की खातिर
मैं तो हूँ तेरे अंतर्मन में
मींच आँखों को अपनी
और फिर कर संवाद मुझसे
मैं हूँ प्रकृति के कण- कण में
मैं हूँ बालक की निश्चल हँसी
कुसुम, पखेरू व चैतन्य
सब में मैं वास करूँ
मैं मिल जाऊँगा बहते नीर में
उसमें सुन तू संगीत मेरा
मैं हूँ बुजुर्गों के चरणों में
उनको स्पर्श कर पाले मुझको
मैं तो हूँ तेरे अंग-अंग में
रहता हूँ सदा समाया
कुछ पल को आँखें मींच
और मुझको कर अनुभव।
लेखिका - संगीता सिंह तोमर
चित्र गूगल से साभार
8 टिप्पणियाँ:
Vary nice mam
वाह कलमघिस्सी बहिन
बहुत सुंदर रचना । बधाई आपको ।
प्रभु हैं तो हर कहीं ही हैं..
सुन्दर रचना। प्रभु कण कण में व्याप्त हैं। सुन्दर सोच और अभिव्यक्ति
सादर
बहुत सुन्दर
वाह!!बहुत सुंंदर।
बहुत सुन्दर रचना......
कण-कण प्रभु हैं एकदम सटीक...
वाह!!!
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